Thursday, December 24, 2009

"मोमो" --- a sweet friend of mine.... n I call him by this name only....



कुछ उसके मिजाज़ गरम-से है,
कुछ उसके जज्बात नरम-से है;

बातें उसकी इतनी तीखी कि
सबको रुला जाती है,
फिर कैसी चेहरे में ये शोखी कि
सबको लुभा जाती है;

कुछ शरारत की मीठी चटनी में
लिपटा-हुआ सा है,
पर अंदर जाने कितने कड़वे अहसासों में
सिमटा-हुआ सा है;

ज़िन्दगी के भाप में कब-से
पकता रहा है,
वक़्त की आंच में लगभग
उबलता रहा है;

फिर भी रहता हर बदलते पलों में
वो इक जैसा-ही,
"मोमो" सबका ही प्यारा ओर
पसंदीदा भी.

Note: Momo(Steamed dumpling) is a tibetan/chinese food.

Sunday, December 20, 2009

कब तक?????

कब तक तुम मुझसे बातें करोगे,
कब तक मैं फोन को घूरा करुँगी;

कब तक तुम मेरी हर खबर लेते रहोगे,
कब तक मैं तुमसे सारा संसार बुना करुँगी;

कब तक तुम अपनी उलझन में मुझे बाँधा करोगे,
कब तक मैं इस घुटन से बाहर निकलूँगी;

कब तक तुम मुझको इतना सताते रहोगे,
कब तक मैं तुम्हें याद कर लिखती रहूँगी;

कब तक मेरी बात अपने दोस्त तक भेजा करोगे,
कब तक तुम्हारी कविता मैं उसे सुनाया करुँगी;

कब तक पन्नों पर तुम पर शक़ की जगह लेते रहोगे,
कब तक तुमपे झूठ की चादर डाल दिया करुँगी;

कब तक तुम मुझे गुमराह किया करोगे,
कब तक और मैं तुम्हारी राह तका करुँगी;

कब तक तुम मौन बन सब बोल जाया करोगे,
कब तक मैं इतना कह के भी चुप रहा करुँगी;

कब तक बोलो कब तक?
कब तक तुम मेरा मन रखा करोगे,
कब तक मैं भी अपना मन तुम्हारे लिए रखा करुँगी.....

Wednesday, December 16, 2009

इक दिन ऐसा हो-

इक दिन ऐसा हो-
जब मैं न करूँ
कोई भी सवाल तुमसे,
तुम भी जवाब देना
भुल जाना.

इक दिन ऐसा हो-
जब हम बन जाए
फिर-से अनजाने,
और कोशिश भी न करे
इक-दूसरे को जानना.

इक दिन ऐसा हो-
जब हँसना न पड़े
झूठ-मूठ का तुम्हें,
और न ही उत्तरस्वरूप
मुझे भी पड़े मुस्कुराना.

इक दिन ऐसा हो-
जब तुम तोड़ जाओ
हमेशा के लिए दिल मेरा,
और मैं भी न चाहूँ
दोबारा खुद को जोड़ना.

इक दिन ऐसा हो-
जब मुझको हिचकी
आए भी तो,
दूर कहीं तुम भी
न खाँसना.

इक दिन ऐसा हो-
जब तुम्हारे दर्द पर
तुम ही सिर्फ रोना,
और मेरे आँसू मेरे ही
आँखों से चाहे निकलना.

इक दिन ऐसा हो-
जब वक़्त ही न मिले
कुछ सोचने को,
और मैं भूल जाऊँ
इन पन्नों को बेवज़ह नम करना.

Thursday, December 3, 2009

तब मन को मसोसा है मैंने.....

जाने क्या मैं ढूँढ़ती,
मैं सबकी आँखों में.
क्या सोचते होगे लोग
मेरे बारे में.

शायद कुछ और ही
समझने को मिले.
इस जीवनरूपी पहेली का हल
किसी और से ही सही,
मगर कुछ तो मिले.

हर दफ़ा मैंने उनको
सुना; वो भी सुना,
जो नहीं थी किसी ने कही.
हर दफ़ा भीड़ में मैं जब भी चली;
औरों की तरह अकेले ही बढ़ी.

लोगों की बातें सुनते हुए
कई बार गौर किया है मैंने;
मैंने ऐसा क्यूँ नहीं सोचा?--
सोच के तब मन को मसोसा है मैंने.

Tuesday, December 1, 2009

ये मन भी न कितना अजीब है!

ये मन भी न कितना अजीब है!

हर पल को संजो-संजो कर
रखने की कोशिश करता है;
मगर कुछ पल बिखर जाए,
तो ही अच्छा रहता है.

जब ऐसे कई पल
मन में जमने लगते है;
तब टीस-टीस करती
हजारों ख्वाहिशें चुभने लगते है.

ये मन भी न कितना अजीब है!

जब देखो चुम्बक बन जाता है;
जिसे भूलने की कोशिश करती हूँ,
उसे ही कस कर पकड़ने लगता है.

कुछ यादें, नुकीले धार वाले
लोहे की कील की तरह होती है;
और मन इन कीलों की तरफ
बरबस-ही आकर्षित होने लगता है.

ये मन भी न कितना अजीब है!.

Friday, November 27, 2009

आज फिर एक बार २६/११ था.....



आज फिर एक बार २६/११ था;
आज फिर एक इमारत ढही है,
ताज न सही, मन ही था मेरा.
आज फिर मरे है कई जज्बात,
इस मलबे की ढेर में अब भी
कई तड़प रहे होगे.

आज उसका फोन आया था,
साथ में न ख़तम होनेवाली
उसकी चुप्पी.
दोनों का बड़ा गहरा
असर पड़ा है.
मेरे मन में कई क्षत-विक्षत
सपने, कुछ अधमरे-से भी
अब भी वक़्त की गिरफ्त में
लाचारगी-से मौत की राह पड़े है.

अंतर बस यही है कि,
इस अंदरूनी नुकसान से
बाहरी जीवन पर
कोई असर नहीं दीखता है.

अंतर बस यही है कि
इसका मातम मनानेवाला
और कोई भी नहीं,
आज सिर्फ मैं ही रोई हूँ.......

Thursday, November 26, 2009

झूठ का चश्मा.....

मेरे पास एक चश्मा था;
इस दुनिया को देखने के लिए,
झूठ के रंग का.
ऐसा भी नहीं है कि बिन चश्मे के
मैं देख नहीं पाती.
पर नंगी आँखों से दुनिया
का नंगा सच देख पाना
मुझमें अब इतनी हिम्मत नहीं.

अब आँखें है तो देखेगी ही ना,
तो क्यूँ न अच्छा-अच्छा ही देखूँ?
बहुत अच्छा भी लगता है,
कभी-कभी मुझे इस जहाँ को
बनानेवाले हाथों पे बेहद प्यार भी आता है.

मगर सच तो यही है कि मैंने
इन हाथों से हर बार थप्पड़ ही खाए है.
सच में! तुम्हारे हाथ बहुत कठोर है,
इतने कि इनके जकड़न में
मोम की भांति पिघल जाते है सब;
और तुम्हारी ही इच्छानुसार
ढल जाते है अपनी अपनी जिंदगियों में.

हाँ! तुम्हारी मर्ज़ी बहुत चलती है,
देखो न, तुमने तो अब
मेरा ये चश्मा भी तोड़ दिया.
सिर्फ इसीलिए न कि मैं
दुनिया को वैसी ही देखूँ,
जैसी वो है.

इस बार तुम्हारे तोड़े गए चश्मे के टुकड़े
मेरी आँखों में बहुत गहरे चुभे है.
इतने कि अब मुझे कुछ भी नहीं दीखता.
तुम्हारी ये दुनिया भी नहीं, तुम भी नहीं,
मैं भी नहीं और वो भी नहीं......

Saturday, November 21, 2009

तुम्हारी झूठ की दास्तान

तुम अकसर मुझसे
झूठ बोल जाया करते हो,
शायद यह सोच के कि
मैं बुरा न मान लूँ.
पर तुम्हारी ये जो
दो आँखें हैं ना,
मुझे इनको पढ़ना आता है.
ये अकसर तुम्हारी
झूठ की दास्तान
मुझे सुनाया करती है.
कभी-कभी तो तुम्हारी
जी-भर के शिकायत भी करती है.
क्योंकि तुम इनसे भी
झूठ बोला करते हो न?

Thursday, October 1, 2009

अकेली हूँ, अलग हूँ, मगर मजबूर नहीं...

अकेली हूँ, अलग हूँ,
मगर मजबूर नहीं;
मेरा जब जी करता है
तुम्हें याद कर लेती हूँ.
बंद आंखों से तुम्हारी तपिश,
मैं जब चाहूँ, छू सकती हूँ.

मुझे सपने आते है, तुम्हारे वाले ही,
मेरे ही द्वारा बनाये हुए;
किसी और के सपने मैं जीती नहीं.
मुझे पता है मैं
तुम्हें क्यूँ याद करती हूँ;
तुम्हारी तरह,
दूसरों के कहे अनुसार मैं तुम्हें
भूलने की कोशिश कभी करती नहीं.

तुम कैसे मेरे करीब
आ गए इतने, यह भी
मैं तुम्हें बता सकती हूँ;
अब तो मैं भी
जानने लगी हूँ कि
तुमसे दूर जाकर
खुश रहना,
मेरे जीवन का
सबसे बड़ा झूठ कहलायेगा.

पर जो सच आज
मैं लिख रही हूँ,
क्या कभी भी तू
इसे पढ़ पायेगा?

Saturday, September 5, 2009

काँच की कटोरी.....

आज पहली बार तोड़ी है,
मैंने काँच की कटोरी;
मेरी सबसे प्यारी
काँच की कटोरी.

पीछे देखती हूँ तो बस
एक ही किस्सा
जी को झकझोरती है,
जब काँच कोई तोड़ा हो.

आज माँ बहुत याद आ रही है;
याद है अब भी मुझे जब
फ्रिज से रूह-अफ्ज़ा की बोतल
निकालते वक़्त मैं
संभाल नहीं पाई थी; सब
टूट के बिखर गए थे
मेरे चारों तरफ और
शर्बत भी पसर गए थे
मन में भय की तरह.

माँ की चपत पहली बार
महसूस की थी, बंद आँखों से
वो भी चपत खाने से पहले.

माँ दौड़ के आई थी,
मुझे गोद में उठा के
मेरे नंगे पाँवों को
अपने नंगे हाथों से झाड़ती हुई
और वो भी नंगे पाँव.

याद है अब भी मुझे
माँ का आँचल,
जिसमें शर्बत और काँच
दोनों लगे पड़े थे.

याद है मुझे, तब से
फिर कभी मैंने कोई
भी काँच नहीं टूटने दिए;
ऐसे सहेज कर रखती गई कि
फिर कहीं चुभ न जाये
मेरी माँ को.

आज पहली बार तोड़ी है,
मैंने काँच की कटोरी,
इस बार मगर जान-बूझ के.

बचपन के उस डर को
निकाल के कि, शायद
आज वो आँचल बहुत दूर है,
इस विश्वास के साथ,
या आज इस मन के
काँच के टूटने की आवाज़
माँ तक नहीं पहुँचेगी
इस विश्वास के साथ.

रोज़-रोज़ दरकने की
सहमी-सी आवाज़ सुनते हुए
थक चुकी हूँ मैं,
सो दे मारा ज़मीन पर
प्यारी कांच की कटोरी को.

इस बार पूरी तरह से
टूटने की आवाज़ आई थी,
कुछ समझ में आया था
अच्छी तरह से, पहली बार.

हाँ! आज पहली बार तोड़ी है,
मैंने काँच की कटोरी;
मेरी सबसे प्यारी
काँच की कटोरी.

Thursday, September 3, 2009

मुझको भी बना दो अपनी तरह.....

मुझसे दूर रह के
कैसे तुम खुश रह लेते हो?
मुझको भी सिखा दो जीना,
जैसे मेरे बिन तुम जी लेते हो.

कटती नहीं जब दिन व रातें,
गिनती रहती मैं हर घडियां;
तकती रहती सिर्फ शून्य को,
बेबस-सी मेरी ये अँखियाँ.

मुझको भी तुम सब भुलाना सिखा दो,
कैसे तुम मुझको भुल कर रह लेते हो?
दुःख में भी मुस्कुरा सकूँ, छुपा सकूँ,
जैसे तुम सबसे हँस-बोल लेते हो.

क्यूँ तुम मेरी तरह
बन के रहते नहीं कभी,
क्यूँ तुम्हारी जगह
मुझे कभी मिलती नहीं.

इस दर्द का असर कम हो कैसे,
कैसे तुम सब दर्द को पी लेते हो?
कैसे मैं सिल लूँ, मन के शब्दों को,
जैसे तुम मुझसे यूँ चुप रह लेते हो.

कह दो कि मुझसे कोई रिश्ता
तुम्हारा कभी था ही नहीं;
ये रिश्ता न होता तो
ये सब भी तो होता नहीं.

कैसे तुझे पहचानने से इनकार कर दूँ,
कैसे तुम मुझसे मुँह मोड़ लेते हो?
हो सके तो बना दो अपनी तरह ही,
जैसे तुम पत्थरदिल अब बने फिरते हो.

Monday, August 31, 2009

सुबह-सवेरे ही.....

सुबह-सवेरे ही
इक सपना देखा था;
रात के अँधेरे में
जैसे कोई अपना रूठा था.

वो जो ऐसे
हाथ में आके फ़िसल गया;
जाना-पहचाना ही था,
फिर-भी जाने कैसे बदल गया?

नमकीन पानी आँखों से होके
जब मन में बहने लगे;
मीठी दरिया थी अन्दर कहीं
सब इस समन्दर में खोने लगे.

अब तो हलक में इतना
कड़वापन-सा लगता है;
झूठ के चाशनी का स्वाद भी
अब फ़ीका-सा लगता है.

जीवन कड़वी सच्चाईयों की बंद
संदूक जैसे बन गई है;
यह मुस्कराहट भी ताले की
जगह जबरन बैठ गई है.

हाँ! सुबह-सवेरे ही
इक सपना टूटा है;
रात के अँधेरे में जैसे
कोई अपना छूटा है.....

Sunday, August 23, 2009

तस्वीर तुम्हारी.....

तस्वीर तुम्हारी आज भी
मन में उकेरती हूँ.
आड़ी-तिरछी नज़रों से तेरी
तेरी ही छवि बनाती हूँ.

थोड़ा प्यार का रंग
पहले उसमें उड़ेलती हूँ.
फिर थोड़े-से नाराजगी से
भी तुमको रँगती हूँ.

चंद खिलखिलाहट भी
तुम्हारी भर देती हूँ.
कुछ चुप्पी तुम्हारी
साँसों में घोल लेती हूँ.

फिर लौ तुम्हारी आँखों की
मन के दीये में सुलगा लेती हूँ.
कुछ सपने अनकहे तुम्हारे
लोरी की भांति सुना देती हूँ.

कुछ क्षण तन्हाई तुम्हारी
तन में लपेट लेती हूँ.
कुछ बूँद तेरी यादों की
तकिये में छुपा लेती हूँ.

हाँ! तस्वीर पूरी करने की
भरसक यत्न करती हूँ.
फिर भी तेरी इक झलक को
पल-पल तरसती हूँ.

Saturday, August 22, 2009

तेरे नैना.....

तेरे नैना
जब भी देखूँ
सोचूँ मैं ये
कि कैसे कहूँ?
सदा के लिए
इन नैनों में ही
मैं छुप के रहूँ.

तेरे नैना
कुछ न कहे
चुप-से ही रहे,
फिर भी देखे
जब भी मुझे
जैसे कहे
अपना ले मुझे.

तेरे नैना
जैसे कोई
भीतर रिसता गहरे
समंदर का पानी,
मन में बहे
जाने कितने
जनमों की कहानी.

तेरे नैना
बड़े ही शरारती
चंचल होकर
करे जब इशारे,
पलकें मेरी
झुकती ही जाये
हाँ! शर्म के मारे.

तेरे नैना
बहुत सताती
रात-रात भर
मुझको जगाती,
आके सपनों में
कहती मुझसे वो
जो कभी कह न पाती.

तेरे नैना.... हाँ .. तेरे नैना....

Thursday, August 20, 2009

बादल भी रोने लगे...........

अचानक तंद्रा टूटी तो देखा
दरवाजे से बाहर,
काले बादल दौड़ते हुए चले आ रहे थे
मेरी तरफ.
कोई अप्रत्याशित घटना
अभी-अभी घटित हुई हो जैसे,
व जिसकी सूचना मुझे देने
बदहवास-से आ रहे हो ऐसे.
मैं भी शंकित-सी, भयभीत-सी
दौड़ के चली गई बरामदे तक,
पूछने को कि क्या हो गया?
कौन-सा आसमान गिर गया?
प्रश्न करूँ इससे पहले ही
ढेर सारी बड़ी-बड़ी तितलियाँ,
जिन्हें हम बचपन में
"हेलीकाप्टर" की संज्ञा दिया करते थे,
बादलों की विपरीत दिशा में
भागे जा रही थी; जैसे
काले भूत को देख लिया हो.
शायद बादल की बदहवासी का
गहरा असर हुआ था उन पर.
मैं चिल्लाई कि क्या हुआ?
मगर दूरी इतनी भी कम न थी
कि वो मुझे समझ पाई
और न ही मैं उत्तर जान पाई.
बस प्रतीक्षा करने लगी कि
वो पास आके दम तो ले ले ज़रा.
इतने में पंद्रह चीलें,
मैंने ठीक से ही गिना था,
आसमान में अचानक से आ गए.
जैसे कि आज ही उनका व्यायाम-सत्र
आरंभ हुआ हो.
कभी इक ही धुरी पर
चकरी बन घूमने लग जाते
तो कभी कतार बना के
जाने किन्हें लुभाते.
ऐसा भी लगा कि
सुनामी आने से पहले की
चेतावनी दे रहे हो.
अब बस कुछ ही पल की दूरी बाकी थी,
मुझमे और बादलों में.
मैं भी भूमिका बाँधने लगी
मन-ही-मन कि पूछूँ कैसे?
होंठ लरजते इससे पहले
बेईमान हवा ऐसी आई
अपने संग बादलों को भी ले गई उड़ा.
अनुत्तरित होकर मन के सारे प्रश्न
जब रोआंसें-से होने लगे.
तब दूर जा के देखा तो
बादल भी रोने लगे.

विश्वासघाती

सवेरे-से कटोरी-भर चावल
रखे थे मैंने,
कोई तो उन्हें चुगने आएगा;
डिब्बे में बंद सड़ रहे थे दाने,
किसी का तो भला हो जायेगा.
पर नहीं..
अब तो मैना मुझसे भी ज्यादा
सयानी हो गई है;
उनकी आंखों में अब अपनों के लिए भी
खौफ़ पैदा हो गई है.
चलो कोई नहीं..
सबकी अपनी इच्छा;
अब तो दुनिया भी ऐसी ही हो चली है,
शायद इसकी कहानी भी यही हो गई है.
सांझ ढलते दो मैना
दिख ही गए, घास में कुछ चुन रही थी वो,
मैंने भी विश्वास का जाल फेंकना चाहा,
सो सारी कटोरी ही उडेल डाली;
डर मत! मैं भी धीरे से
विश्वास का पैबंद लगाने का प्रयत्न कर रही थी.
परन्तु..
उनका विश्वास मुझसे भी अधिक था,
उड़ के चली गई पासवाले बरामदे पर;
और छुप के ढूँढने लगी मुझ नासमझ को
कि इस बार कौन नया विश्वासघाती था.

Wednesday, August 19, 2009

चले आओ.........

कुछ दिनों से हवाओं में कुछ नशा सा है,
कारण पूछा तो बादलों में तस्वीर तुम्हारी ही दिखने लगी.

ऐसा क्यूँ होता है, खुद पे हंसी मैं,
दर्पण में तुम और भी गहरे होते गए, मैं कहीं पिघलने लगी.

क्यूँ आये तुम इतनी देर से, कहाँ थे अभी तक तुम?
जाने क्या-क्या शिकायत मुझे अब तुमसे होने लगी.

चले आओ मेरी आवाज़ सुन के या आ जाऊँ मैं सब छोड़ के,
पल-पल में तुम्हारे छिन जाने के ख्याल से अब मैं डरने लगी.

तुम मेरे ही हो, ऐसा सोचने का क्यूँ मन करता है,
क्यूँ तुम्हारे ख्यालों में अब मैं सिर्फ तुम्हारी ही बनने लगी.

हाँ तुम ही हो मेरे सपनों के राजकुमार! जिसकी खुशबु
अब मेरे मानस-पटल से उतर कर मेरे इर्द-गिर्द बिखरने लगी.

Friday, July 24, 2009

Amrit

A tesimonial to my friend Amrit [note: * his fav song]

इक लड़का "आते-जाते"* जाने
क्या-क्या गुनगुनाते रहता है;
शायद "तुम बिन"* की कहानियाँ
खुद में ही दोहराते जाता है.

न ज़मीन, न ही खुले आकाश पर
उसका डेरा जमता रहता है;
वो तो चलता है तो बस
पानियों में जैसे बहता रहता है.

खेलने की आदत गई नहीं उसकी,
मछलियों का दिल अब भी पकड़ता रहता है;
flirt में माहिर, फिर भी वो शातिर
gentleman बना फिरता रहता है.

बारिश में भींग कर जब फ़ोन करता है,
"oh shit!"-- जैसे उसका ringtone बजता है;
sms का full package लेके घूमते रहता है,
कब कौन नया नंबर मिल जाये, पूछूँ तो
"keep shut" उसका जैसे hellotune बन जाता है.

experience तो 29 yrs. का ही बताता है,
फिर भी बुढ्ढे होने से अब भी कतराता है;
दिखने में तो dracula सा लगता है,
बोलूं तो black belt की धौंस जमाता है.

कुछ शौक अच्छे है उसके, कभी कभार
photography भी कर लेता है.
तस्वीरें मगर वही अच्छी उसकी,
जिसमें वो कहीं नहीं होता है.

गाने को बोलूं तो पहली बार
उसको खुद पे शरम आता है;
सुन लेना जरूर उसकी आवाज़ को,
वो हर दम ही दिल से गाता है.

बातें करेगा मन भर की वो तुमसे,
तुम करो तो -"ज्यादा हो रहा है" ऐसा कहता है;
सबकी हर बातें याद रखता है वो, खुद
को ही कहीं भुल कर आ जाता है.

वो हँसता-बोलता है , ऐसा कर के
कुछ का तो दिल जरूर चुराता है;
जो न मिले तो, "GTH"
type कर ek msg. छोड़ जाता है.

खट्टी-मिठ्ठी अहसासों से भरा हुआ है वो
फिर क्यूँ वो "amrit" कहलाता है....

Thursday, July 9, 2009

क्षणिक मुस्कुराहट..........

मालूम नहीं कैसे उनके चेहरे पर
वो प्यारी-सी लकीर यूँ ही बरबस
बिना बात के आ जाती है.
शायद कुछ याद बन के आ जाते है,
कुछ अकारण,
और कुछ तो मुखौटे की तरह
किसी कारण-विशेष ही आते है.
मैं भी मुस्कुरा लेती हूँ कई बार,
अकसर मगर यादों की लकीरें
न चाहते हुए भी
एक खरोंच भेंट-स्वरुप दे जाती है;
मुखौटे के भीतर भी दम घुटने को होता है,
जीने की चाहत जैसे कम होने लगती है
- साँसों के उखड़ने के तरह;
और बिना कारण
तो कुछ भी नहीं मिलता,
फिर यह क्षणिक मुस्कुराहट भी कैसे?
सोचती हूँ क्या है वो जो,
फिर भी हँसने को मजबूर करती है;
शायद मेरी तरह और भी है,
इक-दूसरे को इक ही मुखौटा पहने देखना
व इक जैसा ही दागनुमा चेहरा,
अनगिनत यादों की निशानी -
शायद यही संजोग मुझको
मुस्कुराने पर विवश कर देती है.

Sunday, May 17, 2009

ज़िन्दगी जैसे मेरी परियों की कहानी....

हाँ मैं थक गई हूँ
तितलियों के पीछे भागते हुए,
हाँ मैं ऊब गई हूँ अब.
पुतलों के संग जीवन व्यतीत करते हुए
कब किसको अच्छा लगा है?
संग अपने उनकी भी बातें स्वयं लिखना
व कहना, बड़ी दुर्दशा है.
कोई तो हो जो कहें अपने मन की बातें
तो मैं जीवन भर सुनती रहूँ...
कब तक खुद की कहानियाँ
मैं यूँ ही बुनती रहूँ?
ढूंढती उस राजा को, जो
बदल दे मेरी जिंदगानी;
ढेर सारी खुशियों के बदले
ले ले मेरी सारी वीरानी.
ज़िन्दगी जैसे मेरी परियों की कहानी
और मैं
इन सब कहानियों की अकेली रानी......

जीवन इक नाटक जो होता....

जीवन इक नाटक जो होता तो अच्छा रहता....

सारे किरदार पहले से मुझे मालूम रह्ते
और जान भी जाती मैं
उनकी हिस्सेदारी अपने जीवन में.

तब न भय रहता किसी के छूट जाने का
और न ही
कोई रोमांच किसी नए के जुड़ जाने का.

शायद जीवन तब ज्यादा तरतीब से सजी रहती,
मेरे मन के अंदरूनी दीवारों में
ये टूटन, चुभन, खरोंच, दरारें नहीं पड़ी होती.

कब कौन क्या कैसे बोल जायेगा व
कौन बिना कहे क्या सदमा दे जायेगा,
ऐसे हादसों का क्रम तब कुछ कम हो पाता.

कहानी के संवाद तो पहले ही याद कर लेती,
हर पग जीवन का फिर पहचाना-सा लगता,
भले ही दो कदम भी चलना दूभर लगता.

सहमती न मैं फिर कभी किसी रिश्ते की बुनियाद पर,
न ही ठहरती किसी की आस लिए अंतहीन विराम पर.

....क्यूँकि मुझे इस नाटक का अंत तो पता रहता.

Thursday, April 9, 2009

इक इंतजार तुम्हारा.....

समय के इस मोड़ पर
जाने कबसे मैं बैठी
सोच रही हूँ।

किस ओर आगे बढूँ,
सभी दिशायें तो मैं
तक रही हूँ।

हवाएं भी भटका देती है,
कभी-कभी, जिधर देखो वहीँ-से
लगता बह रही हो।

सूरज के किस किरण को
पकड़ के आगे बढूँ, आंखों में
जब सब चुभ रही हो।

पशोपेश में तो हूँ, राह फ़िर भी
चुन लुंगी मैं, मन इतना तो
दृढ़ हो रहा है।

रुकी हूँ तो बस तुम्हारे लिए,
इक इंतजार तुम्हारा दिल अब भी
कर रहा है।

Saturday, April 4, 2009

चलना न उस राह पर......

निकलोगे जो मंजिल की तलाश पर
मिलेंगे सौ कंकड़ तुझको राह पर।

पूछ लेना मेरा नाम उनसे, जो
पहचान ले तो चलना न उस राह पर।

क्यूँकि कभी हम भी चले थे उस डगर पर,
और जा पहुँचे किसी मायूसी के घर पर।

मैं 'कस्तूरी मृग'....

तुम मौसम भी होते,
तो इंतज़ार रहता
बार-बार तेरे वापस आने का.

तुम परछाई भी होते,
तो अहसास रहता
हर पल तेरे पास होने का.

तुम तनहाई भी होते
तो मन करता
तेरी बाँहों में लिपट के सो जाने का.

तुम ख्वाब भी होते,
तो जी करता
तुझको आँखों में बसा लेने का.

तुम महावर भर भी होते,
तो रंग तुम्हारा ही रहता
तन-मन के हर कोनों का.

तुम स्याही भी होते,
तो लिखती हर जीवन-अध्याय
नाम होता तेरा मेरे हर पन्नों का.

तुम खुशबु भी होते,
तो छुपा लेती नाभि में
मैं 'कस्तूरी मृग' चाहूँ तुझमें ही में खोने का.

Monday, March 30, 2009

समय फ़िर पीछे लौट आया है....

खवाबों के झूठे प्यालों में, मैंने
पिया है तेरी यादों का जाम
फ़िर-से.
देखो क्या नशा छाया है,
समय फ़िर पीछे लौट आया है।

देखूं मैं तुझको संग अपने,
चलने लगी तेरे हाथों को थाम
फ़िर-से।
देखो क्या नशा छाया है,
समय फ़िर पीछे लौट आया है।

प्यार-भरी बातें भी होने लगी,
तेरी बाहों में पिघलने लगी मैं, जैसे कोई मोम
फ़िर-से।
देखो क्या नशा छाया है ,
समय फ़िर पीछे लौट आया है।

मिलने की खुशियाँ फ़िर बढ़ने लगी,
और जवां भी होने लगी हर पिछली कसम
फ़िर-से।
देखो क्या नशा छाया है,
समय फ़िर पीछे लौट आया है।

साथ ये जो सदा रहता ऐसी किस्मत
अपनी कहाँ, जुदा हो ही गए हम
फ़िर-से।
देखो सपने में भी तुझको अलग पाया है,
समय भी क्या कभी पीछे लौट पाया है.

Thursday, March 5, 2009

मेरी प्यारी पड़ोसन...

*someone asked me to describe the sweetness about one of my fnd when I introduced her as "my sweet padosan"... n I said----
"भंवरों को होती रहती मुश्किल, मंडरते रहते आस-पास ऐसी मधुर वाणी...
वो चंचल-चित्त व आँखों में लिए हुए है मीठी शरारतों की कई निशानी...
चले जिस पग से, छोड़ जाए इक मीठी-सी गुदगुदाती कोई नर्म-सी कहानी...
चंदा भी मीठी-मीठी बातें करे देख उसके मन का सुन्दर रूप, चांदनी को भी होती परेशानी..."

Wednesday, March 4, 2009

चलो अच्छा हुआ तुम चले गए तो...



दर्द छिपाने की कोशिश में मैं क्या न करती गई।
कभी धूल के बहाने सच को पोंछती गई,
कभी होठों में झूठ के सौ रंग भरती गई।
कोई शिकायत नहीं, सबको बस यही कहती गई,
दूसरों में जब गिनाने लगे, तो तुम्हारा
परिचय भी मैं परायों में करती गई।
यही दस्तूर है जब सबकी खुशियों का,
तो मैं कंटीली राह ही सही, पर चलती गई।
नहीं मानती अब भी मैं ऊपरवाले को,
अपनी किस्मत को मैं ख़ुद ही लिखती गई।
कल तुम्हारा साथ लिखा था , आज उन्हीं
हथेलियों में बिछोह की लकीर खींचती गई।
क्या समझोगे तुम इस पीड़ा को, तुमको
जानने में जब सदियाँ भी मुझे कम लगती गई।
चलो अच्छा हुआ तुम चले गए तो,
कुछ दुनिया देख ली, कुछ समझदारी भी आती गई।

Tuesday, March 3, 2009

तुझको क्या अब कहूँ मैं.....



ये कैसा ज़लज़ला है,इस दिल में
हर पल जो उफ़नता रहता है.
कभी आँखों से बहता है,
कभी दिल से रिसता रहता है.

तुझको क्या अब कहूँ मैं,
दिल तो बस रोता रहता है.
कैसे यकीन कर डाला तुझपे,
ये कह के हँसता रहता है.

तेरी कीमत क्यूँ आंकी इस
दिल से मेरे,यही अफ़सोस अब रहता है.
अहसासों की कदर न रही जहाँ,
सरेआम बस तमाशा अब बनता है.

दर्द के इस तूफ़ान में फंस न जाए
कहीं तू भी मेरी तरह,
अपनी किस्मत से अब यूँ डर-सा लगता है.
इसलिए तेरे आँसू भी रख लिए
अपनी चादर के तले,
कि इस दर्द का असर तुझ-पर भी फ़ैल सकता है.

Saturday, February 21, 2009

ज़िन्दगी कोई मुश्किल भी तो नहीं.....



तनहा ज़िन्दगी मुश्किल भी तो नहीं,
यादें गर मिट जाएँ जेहन से.
रेतीले बादल-सी ख्वाब
मेरे हर पल को जो बदलती रहे.
बर्फ से भी ज्यादा जमा है,
मेरे दिल का कोना-कोना.
खुले दरवाजे का अब डर नहीं,
कि ठंडी आहों का बवंडर
इस टूटे-से दिल से चुपचाप गुजर जायेगी.
हाँ ज़िन्दगी यूँ ही पलकों में बिसर जायेगी.
पल-पल में समायी हुई हर वो तमन्ना,
पन्नों-सी बिखर जायेगी; जब
आँधी कोई आएगी, हाँ तब मिट जायेगी.
बचे-खुचे जज्बातों को आंसू धो डालेंगे,
या नहीं तो फिर दिल की आग में जरूर ही जल जायेगे.
हाँ, यूँ ही बीत जायेगी, ज़िन्दगी
मेरी ज़िन्दगी, मुश्किल भी तो नहीं...
कोई धुंधली पड़ी कांच का टुकड़ा तो नहीं,
जो हाथ फिराने से दुबारा दिख पड़ेगी;
कफ़न भी उड़ जायेगा चेहरे से मेरे
आँखों को पढ़ने से पहले ऐसे मैं बंद कर लूँगी.
हाँ, जिंदगी मुश्किल भी तो नहीं...
मुश्किल तो मौत को आने में है,
दरमियां अभी कई पल बाकी है जिसके;
पल जो सब ये बीत जायें तो,
ज़िन्दगी कोई मुश्किल भी तो नहीं.....

दिल की आवाज़



एक आवाज आई;
धडकनों से मेरे खेलती,
दिल को छू जाती.
खिलखिलाती-सी,
वो हँसती मेरे जज्बातों पे,
वो रोती मेरे अंजामों पे.
मैं जो कहती तो वो फिर-से दुहराती,
मैं जो चुप रहती तो सारे ज़माने की सुना करती.
कभी ताकत तो कभी कमजोरी
कभी दुश्मन तो कभी दोस्ती की नाज़ुक-सी वो एक डोरी.
मुझको मुझ-ही से मिलाती,
कभी मुझको ही चुरा जाती.
एक आवाज़ पूछती है,सोचती है;
हर कदम जो मैंने उठाये,
हर सितम जो मैंने भुलाये,
क्या सही क्या गलत
जानूँ क्या मैं?
अब तो वो ही बताये.
एक आवाज़ कह रही है;
ये गलत तो नहीं है.
झूठी है वो बहुत
ऐन वक़्त पर ही दे जाती है दगा;
फिर भी न मिला मुझे उस-सा सगा.
एक आवाज़ फरियाद करती है-
"मुझे दिल में ही रहने दो,
तेरा दिल है मेरा रैन-बसेरा.
आँखों से न कभी उतरने दो,
लगाना सदा पलकों का घेरा.
कि ज़माने की धार तेज बहुत है
और तेरा दिल बड़ा-ही नाजुक है."

Thursday, February 19, 2009

मैं कौन हूँ?



मेरे चाहतों के बादल
तैरते है, सदा मेरी आँखों में.
मैं हूँ प्यासी, उन अधरों की तरह
जिन पर आँसू बनकर ये कभी बरस नहीं पाते....

मैं हूँ तनहा, इन बेशुमार
तारों की चमकीली दुनिया में.
मैं गगन का वो टूटा हुआ तारा हूँ,
जो खुद को भी रोशनी दे नहीं पाते....

है तो तमन्ना मेरी, ऊंची इतनी
कि इस जहाँ से परे, उस जहाँ में.
मैं वो पंछी हूँ, जो पिंजरें में बंद नहीं,
फिर भी कभी ऊंची उडानें भर नहीं पाते....

रेत की तरह फिसल जाती है,
आके ख़ुशी मेरी मुठ्ठी से.
मैं वो सूखा रेगिस्तान हूँ,
जो किसी को भी तो दिशा दे नहीं पाते....

सपने चूर-चूर हो जाते है,
दिन के उजाले में.
मैं तो वो बेनूर ख्वाब हूँ,
जो रातों को भी मन बहला नहीं पाते....

मैं कौन हूँ? एक सवाल बनकर
रह गया है, इस व्योम में.
मैं खुद को कैसे पहचान लूँ,
जब साए भी अपने बन के रह नहीं पाते....

मेरी ख़ुशी



दूसरो से क्या कहूँ, क्या सुनूँ,
उन्हें क्यूँ भला किसी की चिंता हुई.
अपने मन की हालत मैं ही जानूँ,
मकड़ी के जाल में मैं जकड़ी हुई.

हैं मंजिल अपनी, अपनी है राह,
कांटें भी मेरे लिए ही बिछी हुई.
तो दूसरों से किस बात की है चाह,
अपनी किस्मत तो अपने लिए ही बनी हुई.

किसी भुलावे में आकर भटक न जाऊँ,
इस अहसास से भी मैं डरी हुई.
किस रास्ते को मैं अपना बनाऊँ,
इसी पशोपेश में मैं पड़ी हुई.

आसमां को छूना है, तारों को चूमना है,
न ऐसी तमन्ना मेरे दिल में कभी हुई.
मुझे तो बस अपने पैरों पे खड़ा होना है,
चाहे लाख मुसीबत हो मेरे पीछे पड़ी हुई.

उनकी कसौटियों पे खरा उतरना है,
जिनकी आशाएं मुझसे है जगी हुई.
मुझे हर हाल में उन्हें खुश रखना है,
मेरी ख़ुशी मेरे अपनों में ही बसी हुई.

जाने क्या-क्या मैं सोचा करूँ....



जब कभी-भी मैं खुद को तनहा पाती हूँ,
सपनों की दुनिया में यूँ खो-सी जाती हूँ.
पलकों को बंद करके, दुनिया से बेखबर होके,
ख़्वाबों के ताने-बाने बुना करूँ.
जाने क्या-क्या मैं सोचा करूँ....

सोचती हूँ गर मैं बन जाऊँ चिड़िया,
जी-भर के देख लूँगी तब ये सारी दुनिया.
बादल से करूँ शिकायतें, घोंसलों पे डाले क्यूँ आफतें,
बन के उन्मुक्त गगन में यूँ ही उड़ा करूँ.
जाने क्या-क्या मैं सोचा करूँ....

कभी मैं बन जाऊँ नदिया की बहती धार,
अपने समंदर के लिए ले जाऊँ भेंट हज़ार.
खेलूं मैं अठखेलियाँ, संग पर्वत मेरी सहेलियां,
लहरों के संग जीने की तमन्ना करूँ.
जाने क्या-क्या मैं सोचा करूँ....

बन जाऊँ हवा तो मस्ती में झूम लूँ,
बागों में खिले हर फूल को चूम लूँ.
कलियों से संग करूँ छेड़खानी, कभी यहाँ तो कभी वहां जानी,
बन के झोंका प्यार का यूँ ही बहा करूँ.
जाने क्या-क्या मैं सोचा करूँ....

है तमन्ना मेरी कि तारों की तरह टिमटिमाऊँ,
छोटी-ही सही पर सारे जग को जगमगाऊँ.
देखूं दूर आकाश से, लेकिन अपने प्रकाश से,
भटके हुए राही को राह सही दिखाया करूँ.
जाने क्या-क्या मैं सोचा करूँ....

बंद कमरा



" कोई नहीं कमरे में मेरे, मैं बंद रही कमरे में ही पड़ी.."

इक कोने से सटी, दूर दरवाजे को घूरते ही रही,
कोई तो उनमें-से आये, जिनके हिलते-डुलते से साए किनारों से थी झलक रही.
पर शायद किसी ने उस चुटके को,
नहीं पढ़ा था, जो दरवाजे से थी चिपकी हुई कि -
" कोई नहीं कमरे में मेरे, मैं बंद रही कमरे में ही पड़ी.."

कान फिर बंद कर लिए मैंने, उन पदचापों को नहीं सुनने के लिए;
झुकती पलकें भी साथ देने लगी कुछ भी नहीं देख पाने के लिए;
और पैर के अंगूठे से मैं इस अहसास को भी दबाने में तुली हुई कि -
" कोई नहीं कमरे में मेरे, मैं बंद रही कमरे में ही पड़ी.."

तभी कहीं से जब छनकर पहुँच रहा था मुझ तक कोई उजाला,
तब शायद मैंने देखा न था खिड़की का जाला.
उठे हुए कदम ठिठक-से गए, उठी जहाँ से मैं
उसी कुर्सी पे फिर-से पसर गई और मैं लिखती रही,
बस लिखती रही कि -
" कोई नहीं कमरे में मेरे, मैं बंद रही कमरे में ही पड़ी.."

शाम होते-होते खिड़की भी बंद कर दी गई,
कहीं से आती ठंडी हवाओं से मैं सख्त न हो जाऊँ
सो मैंने चादर ओढ़ ली कि ठण्ड बहुत बढ़ गई.
बाहर चाँद आज भी अपने गंतव्य की ओर गतिमान था,
शायद उसे इस ठण्ड का ज़रा-सा भी न गुमान था.
यह सोच मैंने अपनी चादर उसकी ओर लहरा दी
कि ठण्ड बहुत है और रात भी काफी बाकी.
शायद मेरा भी मन अन्दर से डर रहा था कहीं,
सदियों से सख्त होते-होते वो भी दरकने लगा था मेरी तरह ही.
" कोई नहीं कमरे में उसके, वो भी बंद रहा;
मैं भी बंद रही, कमरे में ही पड़ी.."


ठण्ड (अभिप्राय:) रिश्तों में बढती शुष्कता

प्लेटफार्म



शायद समय की रेल की रफ़्तार आज बहुत तेज है,
या तेज है दर्द किसी के छूट जाने का.

सामान तो ठीक से बांधा था मैंने,
फिर वो क्या था?
जो पीछे छूट गया.
कहीं खुद को ही ठीक बांधना नहीं भूल गई मैं
जल्दबाजी में.

शायद समय की रेल की रफ़्तार आज बहुत तेज है,
या तेज है दर्द किसी के छूट जाने का.

कुछ इसी तरह के पशोपेश में,
न जाने मैंने कितने मुकाम पार कर लिए.
फिर क्यों लग रहा है कि
जैसे अभी पिछले स्टेशन से ही तो चली थी मैं.

शायद समय की रेल की रफ़्तार बहुत तेज है,
या तेज है दर्द किसी के छूट जाने का.

कुछ ढूँढती-सी मेरी निगाहें खिड़की से
रह-रह कर टकराते रहे,
आँखों से सूख के ये अश्रु
मेरे मन को भिंगाते रहे.
मन कसकने लगा, याद भी सताने लगी,
न जाने फिर कब मुझे नींद भी आने लगी.

शायद समय की रेल की रफ़्तार बहुत तेज है,
या तेज है दर्द किसी के छूट जाने का.

उम्मीदों का दामन छोड़कर, वक़्त के इस दहलीज़ पे आकर,
जब सिर्फ प्रतिक्रियाविहीन व मूकदर्शक बनकर
देखना पड़ रहा है खिड़कियों से बाहर,
हरे-भरे पेड़ों का जंगली कबीलाओं-सा आंतक
तब सुन्न-से पड़े नीले आकाश को देखकर
इक इच्छा फडफडाती है मन में मेरे कि
काश! होती इक छत, इक वृक्ष की छाया,
बादल का कोई टुकड़ा या सिर्फ धूप की काया.
जिसके नीचे बैठकर
कुछ निज पल एकांत में खुद के लिए भी पा सके,
व बीते कल की जकड़न से खुद को छुड़ा सके.
काश! कहीं मिल पाता ऐसा ही-प्लेटफार्म.

पर शायद समय की रेल की रफ़्तार आज बहुत तेज है,
या तेज है दर्द किसी के छूट जाने का

Wednesday, February 18, 2009

मिट्टी बनाम रिश्तें



आज बारिश हुई है;
बहुत दिनों के बाद
मेरे आँखों में ठंडक-सी पड़ी है.
गीली मिट्टी की सोंधेपन में
रिश्तों-सी बू आ रही है शायद.
पर रिश्तें मिट्टी के तो नहीं होते?
फिर भी कितनी शक्लें
अख्तियार कर लेते हैं न,
ये रिश्तें-मिट्टी के जैसे.
क्यूँ लोग बदल जाते है,
और कैसे रिश्ते मिट्टी में बदल जाते है.
प्यार से मेरे गुंथा हुआ था ये,
समाजरूपी चाक में दरारें फिर भी पड़ ही गई.
समय की आंच में ठीक से पका नहीं था शायद,
इक ठोकर में ही ढेर हो गई.
मिट्टी की थी न,
मिट्टी में ही मिल गई.

Sunday, February 8, 2009

अजन्मा कर्म....



मेरी सोच को कोई लगाम दे दे,
ये बहुत दूर तक चला जाता है.
इसके सिवा भी तो मेरा कोई नहीं,
और अकेला मन बड़ा ही घबराता है.
अभी कल ही तो मेरे भाग्य
से लड़ के आया है.
जीवन के बही-खाते में हुई गड़बडी पर
काफी रोष जताया है.
रूष्ट है विधि के लेख से अब ये,
जो वर्षों पहले ही लिख दिया जाता है.
कहता है, कर्मों से बढकर
कोई और लकीर नहीं होती.
मगर इससे भी तो बड़ी
कोई और जंजीर नहीं होती.
ढूढता फिर वो उस अजन्मे कर्म को,
जिसकी स्याही मेरे खाते में
इतनी उलट-पुलट कर जाता है.....

क्या अंतर फ़िर रह गया..?



जाने कहाँ खो गया....
मेरा रस्ता
अभी तो यहीं था;
बस इस मोड़ से ही गुम हो गया.....
कैसे बढूँ अब मैं,
इस अंजान डगर में;
जी डरता है,
कभी-कभी कहता है;
कहीं कुछ रह तो नहीं है गया.....
चलो मन मान भी ले,
ये सच जान भी ले;
कि जीवन रुकता नहीं,
समय यूँ ठहरता नहीं;
फिर क्यूँ लगे जैसे सबकुछ थम-सा है गया.....
कुछ अच्छा-ही मिल जाये,
तो चलना सफल हो जाये;
जो दिन फिर यही लौट आये,
मन सोच के बस यही घबराए;
कि इस जीवन से उस जीवन में
क्या अंतर फिर रह गया???

Wednesday, January 28, 2009

क्यूँ वो मेरी तरह नहीं है सोचता.....



सिर्फ समय ही जब मिटा सकता है,
तो फिर बनाता क्यूँ है ये नाता.
क्यूँ उसकी ही मर्ज़ी पे चलता है,
जीवन का हर तिनका-तिनका.
जब उससे ही हर तार जुड़े हैं,
तो क्यूँ मेरे ही आँखों से है रिसता.
ख़ुशी में तो वो भी खुश होता होगा,
पर क्या दुःख में वो भी भागी है होता .
मालूम नहीं क्या समीकरण है उसके,
पर इक हँसता तो दूसरा क्यूँ है रोता.
जब-जब भीड़ बढ़ी जीवन में मेरे,
तो कण-कण में बस वो ही है दीखता.
जब चुप्पी की चादर ओढाई उसने,
क्या उसके किसी-भी कोने में वो है बसता.
कैसे मान लूँ मैं दुःख में उसकी भी साझेदारी,
जब स्वयं मन इसको नहीं है स्वीकारता.
जब उसकी ही कोई इक परछाई हूँ मैं,
तो फिर क्यूँ वो मेरी तरह नहीं है सोचता.....

Monday, January 26, 2009

तुम हो तो....

तुम हो तो लगता है, जीने की और मोहलत मिल गयी हो जैसे,
तुम हो लगता है, ज़िन्दगी और भी हसीन हो गयी हो जैसे,
तुम हो तो लगता है, हर चीज़ मुमकिन बन गयी हो जैसे,
तुम हो तो लगता है, हर मंजिल मिल गयी हो जैसे,
तुम नहीं तो लगता है, ये ज़िन्दगी सज़ा बन गयी हो जैसे...

Friday, January 23, 2009

फिर यही वक़्त आएगा..



सुनो तुम आज जो
जा रहे हो अपने रास्ते,
बीच राह में अकेले छोड़े जा रहे
हो न जाने किसके वास्ते.
देखना इक दिन
यही वक़्त घूम के फिर आएगा,
मेरी तरह जब
तू भी अकेला रह जायेगा.
तब शायद सुन सको
इस मन की टूटन को,
पर चाह कर भी तोड़ न सको
जो भूले आज इस बंधन को.
इसलिए डर कि जिस दर्द को
आज तू देखना भी न चाह रहा है,
कल तू भी गुजरेगा इस पल से,
आज जिसमें मेरा दम घुट रहा है.

Thursday, January 22, 2009

क्यूँ आये मेरे इतने पास.....



तुम चुप क्यूँ रह गए,
क्यूँ मेरी आस तोड़ न गए.
क्या भला किया तुमने
मेरे साथ बुत बन के.
क्यूँ नज़रें झुकाए रखी कि पढ़
न पाऊं अक्षर तेरे मन के.
बोल जो दे देते
दो कड़वे बोल सच के.
मन हलका तो हो जाता
ये ज़हर पी के.
क्या अंतर आ गया
कल और आज में.
क्यूँ दूरी बढ़ी अब,
नजदीकियां बनी जिस समाज में.
क्यूँ याद आया अब तुमको
तुम्हारी मजबूरी.
कहाँ गयी वो हिम्मत
जो पहना गयी हमें प्यार की डोरी.
क्यूँ इतना चाहा तुझको,
क्यूँ किया इतना विश्वास.
रहना था दूर तो
क्यूँ आये मेरे इतने पास....

Wednesday, January 7, 2009

मेरा सपना....



खामोशियों के माहौल में,
तनहाईयों की गोद में,
लमहों के दरमियान मेरा सपना पल रहा है....

तुम चुपके से आना,
आहिस्ते-से देख जाना,
मेरा सपना अभी तो सो रहा है....

जागे जब नींद से वो,
देखूं उसकी मुस्कराहट तो,
सोचूं फिर मैं, कैसा वो लग रहा है....

दुनिया मगर बड़ी मतलबी ही है,
जिसे देखो उसे तोड़ने में ही लगी है,
ये नींद में बेखबर, क्या पता बाहर क्या हो रहा है....

जब मिलेगी सपने से मेरे,
क्या होगा हश्र इसका,
जहाँ हर दूसरे का सपना छन् से टूट रहा है....

वो जो जागेगा जब नींद से,
सामना होगा फिर हकीकत से,
क्या फिर-से सो पायेगा, अभी जैसे सो रहा है....

Tuesday, January 6, 2009

कठपुतली मैं, बिन डोर...



कठपुतली तो बना दिया तुमने
सिखा भी दिया कैसे है हँसना...
दो पग चला के गिराते थे,
कि सीख जाऊं मैं फिर से चलना...
हर डोर को जब कस लिया अपने हाथों से,
इस मन को भी संगी बना लिया मीठी बातों से,
ढाल ही लिया जब अपने रंग में,
जब कर लिया पूरा अधिकार..
जब मन ने सच में चाहा
होना तुझ संग ही अंगीकार...
कौन-सी आंधी वो आई,
जो तोड़ गयी तुमसे जुड़ी हर डोर...
तुम दूर छिटक के बंध गए किस आँचल से,
कठपुतली ही रह गयी मैं, वो भी बिन डोर...

सौदागर.. न सौदा कर



सपनों के सौदागर
न सौदा कर,
इन लमहों का,
क्या मोल इसका तुम दे पाओगे,
क्या मेरी तरह इन्हें फिर से जी पाओगे?
क्या कीमत है तुम्हारे लिए
जिनमें हर सांस मेरी अटकी हुई है...
क्या जरूरत है तुम्हारे लिए
जिनमें हर बात बनती-बिगड़ती रही है,
ऐसे जीवन का तुम क्या मोल दोगे,
जो सिर्फ सिसकने के लिए बनी हुई है...
अब कौन-से सपनो को दाँव में लगाओगे,
जहाँ पहले से ही हर सपने दाँव में लगे हुए है...

Monday, January 5, 2009

ये टुकड़े अब किनके लिए है....



कोई कब्र पर भी आके मुंह फेरे खड़े हुए है,
इक हम है जो उनकी याद में कबसे ऐसे ही पड़े हुए है...
इक आंसू भी अब मेरे नाम का नहीं बचा,
हम उनकी तकदीर से अब ऐसे पिछड़ गए है...
वक़्त और मुसाफिर कहाँ किसी के होके रहे है,
जाने जिंदगी में वो कितने रास्ते बदलते रहे है...
रास्ता हूँ या मझधार मैं; जो मंजिल उनकी, उनका ही किनारा,
बीच में बस हम ही खड़े रह गए है...
जिंदा थे हम भी कभी; अब भी उनको पता नहीं,
मिटटी का ढेला ही समझकर बस खेलते रहे है...
वो तोड़ के वजूद जो मेरा अपनी राह चल दिए है
कहना उनसे ये टुकड़े अब किनके लिए है...