Thursday, February 19, 2009

जाने क्या-क्या मैं सोचा करूँ....



जब कभी-भी मैं खुद को तनहा पाती हूँ,
सपनों की दुनिया में यूँ खो-सी जाती हूँ.
पलकों को बंद करके, दुनिया से बेखबर होके,
ख़्वाबों के ताने-बाने बुना करूँ.
जाने क्या-क्या मैं सोचा करूँ....

सोचती हूँ गर मैं बन जाऊँ चिड़िया,
जी-भर के देख लूँगी तब ये सारी दुनिया.
बादल से करूँ शिकायतें, घोंसलों पे डाले क्यूँ आफतें,
बन के उन्मुक्त गगन में यूँ ही उड़ा करूँ.
जाने क्या-क्या मैं सोचा करूँ....

कभी मैं बन जाऊँ नदिया की बहती धार,
अपने समंदर के लिए ले जाऊँ भेंट हज़ार.
खेलूं मैं अठखेलियाँ, संग पर्वत मेरी सहेलियां,
लहरों के संग जीने की तमन्ना करूँ.
जाने क्या-क्या मैं सोचा करूँ....

बन जाऊँ हवा तो मस्ती में झूम लूँ,
बागों में खिले हर फूल को चूम लूँ.
कलियों से संग करूँ छेड़खानी, कभी यहाँ तो कभी वहां जानी,
बन के झोंका प्यार का यूँ ही बहा करूँ.
जाने क्या-क्या मैं सोचा करूँ....

है तमन्ना मेरी कि तारों की तरह टिमटिमाऊँ,
छोटी-ही सही पर सारे जग को जगमगाऊँ.
देखूं दूर आकाश से, लेकिन अपने प्रकाश से,
भटके हुए राही को राह सही दिखाया करूँ.
जाने क्या-क्या मैं सोचा करूँ....

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