Thursday, February 19, 2009

प्लेटफार्म



शायद समय की रेल की रफ़्तार आज बहुत तेज है,
या तेज है दर्द किसी के छूट जाने का.

सामान तो ठीक से बांधा था मैंने,
फिर वो क्या था?
जो पीछे छूट गया.
कहीं खुद को ही ठीक बांधना नहीं भूल गई मैं
जल्दबाजी में.

शायद समय की रेल की रफ़्तार आज बहुत तेज है,
या तेज है दर्द किसी के छूट जाने का.

कुछ इसी तरह के पशोपेश में,
न जाने मैंने कितने मुकाम पार कर लिए.
फिर क्यों लग रहा है कि
जैसे अभी पिछले स्टेशन से ही तो चली थी मैं.

शायद समय की रेल की रफ़्तार बहुत तेज है,
या तेज है दर्द किसी के छूट जाने का.

कुछ ढूँढती-सी मेरी निगाहें खिड़की से
रह-रह कर टकराते रहे,
आँखों से सूख के ये अश्रु
मेरे मन को भिंगाते रहे.
मन कसकने लगा, याद भी सताने लगी,
न जाने फिर कब मुझे नींद भी आने लगी.

शायद समय की रेल की रफ़्तार बहुत तेज है,
या तेज है दर्द किसी के छूट जाने का.

उम्मीदों का दामन छोड़कर, वक़्त के इस दहलीज़ पे आकर,
जब सिर्फ प्रतिक्रियाविहीन व मूकदर्शक बनकर
देखना पड़ रहा है खिड़कियों से बाहर,
हरे-भरे पेड़ों का जंगली कबीलाओं-सा आंतक
तब सुन्न-से पड़े नीले आकाश को देखकर
इक इच्छा फडफडाती है मन में मेरे कि
काश! होती इक छत, इक वृक्ष की छाया,
बादल का कोई टुकड़ा या सिर्फ धूप की काया.
जिसके नीचे बैठकर
कुछ निज पल एकांत में खुद के लिए भी पा सके,
व बीते कल की जकड़न से खुद को छुड़ा सके.
काश! कहीं मिल पाता ऐसा ही-प्लेटफार्म.

पर शायद समय की रेल की रफ़्तार आज बहुत तेज है,
या तेज है दर्द किसी के छूट जाने का

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