Saturday, September 5, 2009

काँच की कटोरी.....

आज पहली बार तोड़ी है,
मैंने काँच की कटोरी;
मेरी सबसे प्यारी
काँच की कटोरी.

पीछे देखती हूँ तो बस
एक ही किस्सा
जी को झकझोरती है,
जब काँच कोई तोड़ा हो.

आज माँ बहुत याद आ रही है;
याद है अब भी मुझे जब
फ्रिज से रूह-अफ्ज़ा की बोतल
निकालते वक़्त मैं
संभाल नहीं पाई थी; सब
टूट के बिखर गए थे
मेरे चारों तरफ और
शर्बत भी पसर गए थे
मन में भय की तरह.

माँ की चपत पहली बार
महसूस की थी, बंद आँखों से
वो भी चपत खाने से पहले.

माँ दौड़ के आई थी,
मुझे गोद में उठा के
मेरे नंगे पाँवों को
अपने नंगे हाथों से झाड़ती हुई
और वो भी नंगे पाँव.

याद है अब भी मुझे
माँ का आँचल,
जिसमें शर्बत और काँच
दोनों लगे पड़े थे.

याद है मुझे, तब से
फिर कभी मैंने कोई
भी काँच नहीं टूटने दिए;
ऐसे सहेज कर रखती गई कि
फिर कहीं चुभ न जाये
मेरी माँ को.

आज पहली बार तोड़ी है,
मैंने काँच की कटोरी,
इस बार मगर जान-बूझ के.

बचपन के उस डर को
निकाल के कि, शायद
आज वो आँचल बहुत दूर है,
इस विश्वास के साथ,
या आज इस मन के
काँच के टूटने की आवाज़
माँ तक नहीं पहुँचेगी
इस विश्वास के साथ.

रोज़-रोज़ दरकने की
सहमी-सी आवाज़ सुनते हुए
थक चुकी हूँ मैं,
सो दे मारा ज़मीन पर
प्यारी कांच की कटोरी को.

इस बार पूरी तरह से
टूटने की आवाज़ आई थी,
कुछ समझ में आया था
अच्छी तरह से, पहली बार.

हाँ! आज पहली बार तोड़ी है,
मैंने काँच की कटोरी;
मेरी सबसे प्यारी
काँच की कटोरी.

Thursday, September 3, 2009

मुझको भी बना दो अपनी तरह.....

मुझसे दूर रह के
कैसे तुम खुश रह लेते हो?
मुझको भी सिखा दो जीना,
जैसे मेरे बिन तुम जी लेते हो.

कटती नहीं जब दिन व रातें,
गिनती रहती मैं हर घडियां;
तकती रहती सिर्फ शून्य को,
बेबस-सी मेरी ये अँखियाँ.

मुझको भी तुम सब भुलाना सिखा दो,
कैसे तुम मुझको भुल कर रह लेते हो?
दुःख में भी मुस्कुरा सकूँ, छुपा सकूँ,
जैसे तुम सबसे हँस-बोल लेते हो.

क्यूँ तुम मेरी तरह
बन के रहते नहीं कभी,
क्यूँ तुम्हारी जगह
मुझे कभी मिलती नहीं.

इस दर्द का असर कम हो कैसे,
कैसे तुम सब दर्द को पी लेते हो?
कैसे मैं सिल लूँ, मन के शब्दों को,
जैसे तुम मुझसे यूँ चुप रह लेते हो.

कह दो कि मुझसे कोई रिश्ता
तुम्हारा कभी था ही नहीं;
ये रिश्ता न होता तो
ये सब भी तो होता नहीं.

कैसे तुझे पहचानने से इनकार कर दूँ,
कैसे तुम मुझसे मुँह मोड़ लेते हो?
हो सके तो बना दो अपनी तरह ही,
जैसे तुम पत्थरदिल अब बने फिरते हो.