Friday, November 27, 2009

आज फिर एक बार २६/११ था.....



आज फिर एक बार २६/११ था;
आज फिर एक इमारत ढही है,
ताज न सही, मन ही था मेरा.
आज फिर मरे है कई जज्बात,
इस मलबे की ढेर में अब भी
कई तड़प रहे होगे.

आज उसका फोन आया था,
साथ में न ख़तम होनेवाली
उसकी चुप्पी.
दोनों का बड़ा गहरा
असर पड़ा है.
मेरे मन में कई क्षत-विक्षत
सपने, कुछ अधमरे-से भी
अब भी वक़्त की गिरफ्त में
लाचारगी-से मौत की राह पड़े है.

अंतर बस यही है कि,
इस अंदरूनी नुकसान से
बाहरी जीवन पर
कोई असर नहीं दीखता है.

अंतर बस यही है कि
इसका मातम मनानेवाला
और कोई भी नहीं,
आज सिर्फ मैं ही रोई हूँ.......

Thursday, November 26, 2009

झूठ का चश्मा.....

मेरे पास एक चश्मा था;
इस दुनिया को देखने के लिए,
झूठ के रंग का.
ऐसा भी नहीं है कि बिन चश्मे के
मैं देख नहीं पाती.
पर नंगी आँखों से दुनिया
का नंगा सच देख पाना
मुझमें अब इतनी हिम्मत नहीं.

अब आँखें है तो देखेगी ही ना,
तो क्यूँ न अच्छा-अच्छा ही देखूँ?
बहुत अच्छा भी लगता है,
कभी-कभी मुझे इस जहाँ को
बनानेवाले हाथों पे बेहद प्यार भी आता है.

मगर सच तो यही है कि मैंने
इन हाथों से हर बार थप्पड़ ही खाए है.
सच में! तुम्हारे हाथ बहुत कठोर है,
इतने कि इनके जकड़न में
मोम की भांति पिघल जाते है सब;
और तुम्हारी ही इच्छानुसार
ढल जाते है अपनी अपनी जिंदगियों में.

हाँ! तुम्हारी मर्ज़ी बहुत चलती है,
देखो न, तुमने तो अब
मेरा ये चश्मा भी तोड़ दिया.
सिर्फ इसीलिए न कि मैं
दुनिया को वैसी ही देखूँ,
जैसी वो है.

इस बार तुम्हारे तोड़े गए चश्मे के टुकड़े
मेरी आँखों में बहुत गहरे चुभे है.
इतने कि अब मुझे कुछ भी नहीं दीखता.
तुम्हारी ये दुनिया भी नहीं, तुम भी नहीं,
मैं भी नहीं और वो भी नहीं......

Saturday, November 21, 2009

तुम्हारी झूठ की दास्तान

तुम अकसर मुझसे
झूठ बोल जाया करते हो,
शायद यह सोच के कि
मैं बुरा न मान लूँ.
पर तुम्हारी ये जो
दो आँखें हैं ना,
मुझे इनको पढ़ना आता है.
ये अकसर तुम्हारी
झूठ की दास्तान
मुझे सुनाया करती है.
कभी-कभी तो तुम्हारी
जी-भर के शिकायत भी करती है.
क्योंकि तुम इनसे भी
झूठ बोला करते हो न?