Tuesday, December 21, 2010

एक भेंट तुम्हारी खुशी का इक हिस्सा बनने के लिए मेरी तरफ से.

आज कुछ ऐसा लिखने को मन हो रहा है, जिसे मैं किसी और को खुश होते देख महसूस कर रही थी. यूँ तो उम्र में वह मुझसे काफी छोटा है, मगर उसके साथ मेरी बहुत निभती है. मुझे पता है अभी अगर वो यह पढ़ेगा तो मुझसे इस बात के लिए जरूर लड़ेगा कि उम्र का अंतर बताना जरूरी था क्या? और मैं हँस दूँगी, कहूँगी कि छोटा है तो छोटा जैसे रह. इस बात पर वह और तिलमिलाएगा, शायद कुछ देर के लिए ही सही, एक बार फिर कुर कुर हो जायेगी. ये कुर कुर शब्द भी उसी ने इजाद किया है, मगर फिर भी हर कुर कुर की एकमात्र कारण उसे मैं ही लगती हूँ. आज उसका प्लेसमेंट हुआ है, और इस बात पर मैं उसे कौन सी मिठाई खिलाऊँ, यही नहीं समझ आ रहा है. कारण बस यही कि वह मुझे मिठाई खाने से रोकता है, मेरे गुड़ वाले रसगुल्ले पर नज़र गडा के रखे रहता है. मेरे मन में तब उसके लिए सबसे ज्यादा गालियाँ निकलती है क्यूंकि I love गुड़ का रसगुल्ला. तब मैं अपने मोटापे को लेके चिंतित होना छोड़ देती हूँ और एक झूठा मगर प्यारा-सा वादा खुद से कर लेती हूँ कि कल से दौडना शुरू कर दूँगी. मेरे इस दौड़ने के प्रण पर मेरी एक सहेली ने भी कह डाला है कि अगर मैं लगातार सात दिनों तक दौड़ने के लिए सुबह उठना शुरू कर दूँ तो बदले में वो मुझे अपनी तरफ से बाहर खिलाने ले जायेगी, हालाँकि इस बात को हुए ३ साल होने को आये है और मुझे अब तक वो लजीज खाना नसीब नहीं हुआ है. हाँ तो यह पोस्ट लिखने से पहले मैंने यही सोचा कि उसे ये पोस्ट लिख के दे दूँ, मेरी तरफ से बधाई के लिए. मेरे पास सिर्फ शब्दों के कुछ मोती बोलो या पत्थर-कंकड़ ही पड़े है, जो उसे भेंट स्वरुप दे सकती हूँ. पिछले कई दिनों से वह काफी परेशान था. एक के बाद एक कंपनी में छंटने के बाद उसमें गुस्सा भर रहा था जैसे कि उसके साथ ही ऐसा क्यूँ हो रहा है? इस दौरान उसने काफी कुछ सीखा होगा, यह मुझसे ज्यादा भला कौन जान सकता है. और मैं भी यही चाहती थी कि कुछ सबक मिलने के बाद ही उसे कुछ मिले, तब शायद वह उस मोती की कीमत को भली भांति समझ सकेगा और उसे अच्छे से संभाले रखेगा.

तुम आज सोच रहे होगे न कि मैं क्या लिखने वाली हूँ इस पोस्ट में. ज्यादा कुछ नहीं, बस बीते पलों में से कुछ को फिर से सजाने की कोशिश ही कर रही हूँ.

याद है जब तुम पहली बार ट्रेक में जाने से पहले मिले थे तो तुमने बस में सबका फोटो लिया था और हम दोनों, नीतू और मुझे, उस फ्रेम से निकाल दिए थे. मुझे बुरा लगा था, और उस समय तुम्हें नहीं जानते हुए भी मैं धीरे से बुदबुदाई थी कि रुक अभी पूरा ट्रेक बाकी है. अभी तुम हँस रहे होगे कि बाप रे ये लड़की कितनी बड़ी होकर भी छोटी-छोटी बातों को दिल से लगाये रहती है. तो मैं  तुम्हें बता दूँ कि मैं इंसान हूँ और इंसान जैसी ही सोचती हूँ. उसके बाद जब ये पता चला कि तुम्हें ही कहा गया है हम दोनों का ख्याल रखने को तो मन ने एक बार कहा कि हम खुद से रख लेगे इससे अच्छा.

फिर जब स्टेशन के बाहर खड़े थे और नीतू को वाश-रूम जाना था, और तुम्हें मैं बोलने गई थी कि हमारा इंतज़ार करना तो तुम्हारा दो टका-सा जवाब कि अभी ही जाना था, उस बात पर तुम्हें उस समय बहुत सुनाने का मन किया था. मगर फिर सोचे कि इनकी बुद्धि इससे ज्यादा बढ़ नहीं सकती और मैं बिना कहे वापस चली आई.

स्टेशन में ट्रेन का इंतज़ार करते वक्त ही तुम थोड़े ढंग के लगे जब तुमने कहा कि हमलोग बात क्यूँ नहीं कर रहे है. कुछ ऐसा ही कहा था तुमने.

फिर पता नहीं कैसे तुम मुझसे बातें करने लगे थे, शायद उस टी.टी. के कारण, वरना हम कभी इतना बात ही नहीं कर पाते. ट्रेन में जब मैं दूसरे बोगी में बैठे बाकियों से बातें कर रही थी तब तुम आकर मुझे बोले थे कि अपने बर्थ में चलो वहाँ नीतू अकेली बैठी है और उस समय मुझे पता लगा कि तुम मेरी गैरमौजूदगी को मिस कर रहे थे. इस बात पर मैं मन-ही-मन हँस दी थी कि जनाब सीधे भी रहते है कभी-कभी. फिर सब जब अपने अपने बर्थ में सो रहे थे, तब तुम और मैं ऊपर वाली आमने-सामने बर्थ पर कुछ भी बातें किये जा रहे थे. तुम अपनी बचपन की बातें भी बताने लगे थे और मैं सुन सुन कर सोच रही थी कि यह मुझे कैसे बताने को राज़ी हो गया. हा हा हा.

बागेश्वर में याद है जब छत में धूप सेंकने गए थे हम, तो तुम अपनी कुछ बातें बोल गए थे और मैं चुपचाप से नीचे आ गयी कि इसे मैं ही मिली थी सुनाने के लिए. बहुत ठंडी थी और मैं नहा के निकली थी जब तुमने ये फोटो लिया था.

उसके बाद तो हम तीनों ने बड़े मजे से गुजारे. वो ट्रेक की पहली रात जब हम खाती पहुँच कर टेंट लगा के सोये थे. तुम्हें याद है हम पीछे रह गए थे और एक बच्चे ने हमे गलत रास्ता बता दिया था और हम गांव से होते हुए फिर अपने साथियों से मिले थे. तब चौहान जी बच्चों से बतियाते हुए मिले थे. उस समय मैंने ये फोटो क्लिक कर लिया था.

 फिर अपना टेंट खुद लगाना, उसके बाद रात को हम सब आग जला के एक-दूसरे के बारे में बताकर कर चिढा रहे थे. उस पर से चौहान को प्रवीण ने खूब सताया था और हम और नीतू चुपचाप से सुने जा रहे थे कि कब आग खतम हो और हम जाए अपने-अपने टेंटों पर. मुझे नींद नहीं आ रही थी और नीतू को तो ठण्ड ही लगे जा रही थी. फिर सुबह मेरी नींद जल्दी खुल गई थी और मैं तुम दोनों को उठाने लगी थी. तुम उठ नहीं रहे थे तो मैं तुम्हें पुराने हिंदी गानों की रंगोली सुनाने लगी थी, जिसे सुन के बाकी सब उठ गए थे और तुम फिर भी नहीं उठे. तब तुम्हें मार-मार के उठाना पड़ा था मुझे. मगर तुम नाराज़ भी नहीं हुए थे. फिर टेंट से बाहर निकलते ही एक सफ़ेद रंग की प्यारी सी कुतिया मेरे पास आके खड़ी हो गयी थी. उस समय तो वह मुझे किसी देवदूतनी से कम नहीं लग रही थी. और मैंने उसके साथ कुछ फोटो भी खिंचवाए थे.



तुमको पानी पीना होता था तो या तो मेरे हाथ से या नीतू के हाथ से पीते थे. तुम्हारी तो रईसी थी उस समय. और वो झरने का पानी कितना मीठा होता था न! हम एक दूसरे से इतना घुल मिल गए थे कि कभी भी कोई अलग काम नहीं किये न. और वो प्रवीण, तुम, मैं और नीतू का ४ बजे उठ कर उस घर वाले का पीने वाला लोटा लेके भाग जाना, आज भी याद आता है तो हँसी आ जाती है.

सफर में जब जाने के वक्त तुम सब नदी में नहाने के लिए कूद पड़े थे और हम बस बाहर से तुमलोगों को मजे करते देख रहे थे तो मुझे बहुत गुस्सा आ रहा था कि हमने अपने सब कपड़े आगे क्यूँ भिजवा दिए. और वापसी में हमने अपनी जिद पूरी भी की थी नहाने की. और तुम बहुत गुस्सा कर रहे थे, क्यूंकि तुम अकेले ही पहरेदारी में लगे थे. उस समय मेरा फोटो भी तुमने बहुत गंदे से लिया था देखो तो, बीच में घास-पत्ती भी डाल दिए.  

और यह याद है न जब हम पिंडारी के चोटी पर थे. उस वक्त सच में बहुत अच्छा लग रहा था. हमने अपने ग्रुप (ग्रुप ई) को E-people नाम दिया बोले तो equal people.


ट्रेक के बाद फिर तुम्हारे घर भी चले जाना, और तुम्हारे घर में तो सबको अजीब भी लगा होगा कि मनीष की दो दोस्त वो भी लड़की घर आ रही है. वो दो दिन तुम्हारे घर में बिताए हुए बहुत ही अच्छे पल थे. ताजमहल के सामने तांगेवाले को हटाकर खुद को बैठाना और फोटो लेना कितना अच्छा लग रहा था सब. और वो ताज को देखने के बाद मेरा कहना कि ताज जैसा वाला फीलिंग नहीं आ रहा है.




चलो ये अब बातें तुमसे और नहीं करुँगी नहीं तो तुम बोर हो जाओगे और मैं भी बताते-बताते. कुछ और बताते है तुम्हारे बारे में. जैसे कि तुम्हें गाल में थपकी भी देना तुम्हारे इगो को चांटा लगाने जैसा होता है ये मैंने तब जाना जब तुमने मेरा हाथ इतना जोर से मरोड़ा था कि मैं रो पड़ी थी. तुमको मुझपे गुस्सा आता है कि मैं तुमसे शिकायत क्यूँ नहीं करती, हक क्यूँ नहीं जमाती और अपने समझदारी का सारा टोकरा तुम्हारे सिर पर ही क्यूँ डालती हूँ वगैरह-वगैरह. मैं कैसे बताऊँ कि मैं ऐसी ही हूँ.  तुम्हारे साथ मेरी लड़ाई ही ज्यादा होती है, और फिर तुम २-४ दिन तक कोप-भवन में बैठे रहोगे. फिर जब उस कोप भवन से आप निकलोगे तो तुम फिर से सोचने लग जाओगे कि ऐसा क्यूँ होने लगा है? पहले तो ऐसा नहीं था. अब मेरे पास इस बात का कोई जवाब नहीं है. मुझे पता है तुम्हें मुझ पर इतना गुस्सा आता है कि तुम्हारा मन करता होगा कि इस लड़की का गला दबा दूँ? हैं न!

और हाँ! उस दिन तुम जो फोन पर मेरी बातें सुन कर मुझे इतना सुनाये थे ना, उस बात का बदला मैं हर दिन गिन-गिन के और धीरे-धीरे लूँगी तुमसे. समझे न! दूसरी बार बोला तो मैं तुम्हारे सारे बाल नोच लूँगी.

तुम्हारे साथ मेन बिल्डिंग में लैपटॉप में मूवी देखना बहुत अच्छा लगता है. और कभी-कभी तुम मुझे सुलाने के लिए स्क्रीन के उस पार से हाथ से थपथपाते हो तो सच्ची बोलूं तो नींद आ जाती है.

मगर मुझे तुम्हारा फोन काटना बिलकुल भी बर्दाशत नहीं होता. तुम गुस्से में बिलकुल गंदे लगते हो, जिसे मन करता है कि दो-चार लगा दूँ तो ही शायद अकल आये.

और जब तुम धीरे-धीरे खाना खाते हो तो भी बहुत चिढ़ आती है क्यूंकि तुम्हारे स्पीड से खाना खाऊंगी तो मेरी भूख भी खतम हो जाती है. और मुझे स्पून फीडिंग बिलकुल भी पसंद नहीं जो तुम अक्सर चाहते हो. मन करता है कि पूरा चम्मच भी खिला दूँ. समझे?

हाँ मगर तुम चाय मुझसे जल्दी पी जाया करते हो और मेरे गिलास से भी ले लेते हो. अब तो मुझे आदत हो गयी है कि जब भी तुम्हारा गिलास खतम हो तो अपने में से थोड़ा भर देना.

मगर मुझे हँसी भी आती है जब तुम्हें हाथों से चावल खाना बिलकुल भी नहीं आता. तब मन करता है कि तुम्हें चिढ़ाऊं कि आई.आई.टी. के स्टूडेंट को इतना भी नहीं आता.

तुम जब १० मिनट की देरी पर चिल्लाते हो तो मुझे भी चिल्लाने का मन करता है कि भाड़ में जाओ किसने बोला है वेट करने को.

और अब तो मुझे भी पता चल गया है कि तुम मुझसे भी झूठ बोला करते हो. पहले मुझे कैसे सुनाया करते थे कि तुम्हारी तरह नहीं हूँ. आ गया ऊंट पहाड़ के नीचे! हे हे.

और हाँ जब तुम दूसरों से चिढ़ के कुछ उल्टा-पुल्टा बोलते हो और उसके बाद मेरे से जो सुनते हो और उसके बाद तुम्हारा मूड ऑफ इस बात पे हो जाता है कि तुम मेरे मजाक को भी कितना गन्दा बना देती हो और मुझे ही नीचा दिखाती हो. तब मैं कितनी बार तुम्हें समझाती हूँ कि मेरे कहने का ऐसा मतलब हरगिज़ नहीं था. मगर तुम तो अपने सिवा कभी सुने भी हो. तब लगता है कि किसी दीवार में जाके अपना सिर फोड़ लूँ.

तुम्हारा वो एक ही डांस स्टेप मुझे अच्छा लगता है, भले ही तुम उसी को बार-बार क्यूँ न करो. लेकिन जब तुम रोड में चिल्लाते हो हो तो मुझे बिलकुल भी अच्छा नहीं लगता. तब लगता है किस सिरफिरे से पंगा ले लिया. तुम्हारा कभी-कभी किसी बात को लेके जिद करना, उफ्फ्फ कभी-कभी लगता है मेरे जैसा ढीठ प्राणी भी इसके आगे हार जाता है क्या?

चलो बहुत हो गया लिखना, बस इतना कहूँगी कि मैं जानती हूँ तुम अलग राह के हो और मैं दूसरी ही राह की. फिर भी वक्त के इस मोड़ में थोड़ी देर के लिए मिलना भी बहुत अच्छा लगता है. यहाँ से निकलने के बाद तुम कहीं भी जाओगे मुझे जरूर याद करोगे और मैं......हम्म्म्म मेरे पास इतना टाइम नहीं है हे हे. चल हो गया बहुत. गुड नाईट!

Thursday, December 16, 2010

गुलाब का पौधा.....

अहसासों को काट कर
फेंक देना ही है जिंदगी,
तो मैं शायद बरसों पुराना
कोई गुलाब का पौधा हूँ.

जिसमें नए अहसासों के
पनपने से पहले
पुरानी डालियों की छँटाई
होनी जरूरी होती है.

मुझमें सपने अब भी है
यह तसल्ली कटने के बाद
बने घाव से फिर-से उगते
पत्तों में अब भी दीखती है.

मेरे काँटों से किसी को भी
चुभन अब नहीं होती है,
और हर साल खिलने की
मैं हिम्मत कर ही लेती हूँ,

मेरे रंगों की तारीफ़ अब भी
कोई न कोई कर तो लेता है,
और जिसे जी में चाहे तो मुझे
मेरी डाली से तोड़ भी लेता है.

मेरी महक में किसी को भी
अकेलापन तो नहीं लगता होगा,
पर मेरे खिले होने का मतलब
क्या किसी ने सोचा भी होगा?

जब मेरे पत्ते-पंखुड़ियाँ, हरे डाल भी
रिश्तों की नमी को कम होता पाते है,
बिना कहे वो भी पता नहीं कैसे
पीले और पीले पड़ते जाते है.

मैं जानती हूँ कि इसी तरह
मुझे हर साल कटना-छंटना है,
जब तक है हिम्मत की उर्वरकता,
मुझे बस खिलते रहना है.

मगर जो विषैले रिश्तों के बीज
मेरे मन के मिट्टी में दबे रह गए है,
उससे मेरी जड़ें कब तक बचेगी?
सहनशीलता के कवच भी तो जवाब दे गए है.

Monday, December 13, 2010

तुम

कभी-कभी उन सभी कोशिकाओं
को ढूँढने का मन करता है,
जिनमें तुम्हारी यादें बस गई हो.

सिर्फ इतना जानने के लिए
कि तुम और कितने
याद आने बाकी रह गए हो .

रोज रोज सोचती हूँ कि
अब तो बहुत हो चुका, पर नहीं
तुम अब भी नहीं चुके हो.

जाने कैसे याद आते रहते हो,
जाने क्या – क्या तुम
उन कोशिकाओं में रख गए हो?

हर सुबह दुगुने हो जाते हो,
जैसे मुझे “ न भुलने की ”
- कोई मीठी कसम दे गए हो.

कोशिका-द्विभाजन की
यह विशेषता जतला कर
हाँ! तुम सच में अमृत बन गए हो.

Thursday, December 9, 2010

लाल रंग

वक्त के आईने पर
जब अपना ही चेहरा देखती हूँ,
तो यह अहसास होता है कि
कितने मोड़ पीछे छोड़ आई हूँ.

उम्र से अधिक वक्र रेखाएं
चेहरे में दिखने लगी है,
शायद बहुत जल्दी-जल्दी
कई मोड़ पार कर आई हूँ.

जिन मोड़ों पर उसका नाम
अब भी लिखा मिलता है,
वहाँ वक्रता कुछ ज्यादा-ही
खिंची हुई दीखती है.

उसकी हँसी अब भी
मेरे दोनों आँखों के बीच
बचे स्थान के थोड़ा ऊपर
चिपकी हुई रहती है.

जिसे मिटाने के लिए
मैं जब भी खुरचती हूँ,
लाल-सा कुछ मुझमें
भी दीखने लगता है.

उसे तो लाल रंग
बहुत पसंद था,
शायद इसीलिए मुझमें
यह रंग नहीं जँचता है.

Wednesday, December 8, 2010

माँ की आवाज़

मन जब भी आसमान में
बादल को देखता है,
तो उसे कभी किसी
बुढ्ढे की दाढ़ी समझता है,
तो कभी ड्रैगन की पूँछ
या कोई लेटी हुई लड़की
कभी कई चेहरों का
झुण्ड बनने लगता है.

ऐसी आकृतियों को बनाकर
मन खुश होने लगता है,
किसी ने सोचा न होगा,
सोच के मुस्काने लगता है.

तभी एक चील जब
गोल-गोल घूमने लगती है,
तो न जाने क्यूँ
यूँ डर –सा लगता है,
मेरी आँखों को ही
नोचने आ रही होगी,
मेरे खवाबों को अंधे होने का
भ्रम- सा लगता है.

तेज धूप में जब गालों में
कंपन होने लगती है,
चील वाला भय भी
तब कहीं भाग जाता है.
छाँव के पीछे सूरज रख
बैठती हूँ तो हाथों में
बालू खेलने लगते है.

फिर दूर से ही
माँ की आवाज़ आती है.
मन उठ कर फिर
घर की ओर चल देता है.
चील, लड़की, बुढ्ढा, ड्रैगन
सभी गायब होने लगते है.

माँ की आवाज़ जैसे
सब सुन लेते है.

Friday, December 3, 2010

बर्फ के सिल्ली के उस पार.....

मैं रोज उठती हूँ,
पर दिन चढ़ने के बाद ही,
मेरी दिनचर्या में किसी भी सूरज का
कोई भी योगदान नहीं;
भाग-दौड़, परिश्रम हर प्रक्रिया
केवल मेरे बनाये हुए नियम पर
यथावत पूर्ण या पूर्णता तक पहुँचते रहते है,
इससे समयचक्र का चलते रहने का
भ्रम भी बने रहता है.

पर जब मैं कमरे के भीतर होती हूँ,
तब क्यूँ लगता है कि
मैं इस कमरे से बाहर कब निकली?
खुद को तब किसी मुर्दाघर के
किसी एक खाने में
सोया हुआ पाती हूँ;
तो मैं गौर से देखती हूँ
खुद को उस खाने के भीतर,
जहाँ मैं आराम से लेटी हुई होती हूँ.

मुझे लगता है कि
मैं भयंकर ठण्ड में जमा दी गई हूँ;
या बना दी गई हूँ वो चाबी का गुच्छा,
पापा के दराज से चुराई हुई,
जिसमें एक शंख, कुछ पत्तियाँ, कुछ मोती
कांच के भीतर जैसे मैं जमाई हुई,
या बना दी गई हूँ वह कौतुहल
जो कंचों के भीतर झांकने से
पैदा होता था मेरे अंदर.

वह कौतुहल आज भी
जैसे बर्फ की सिल्ली में कैद-
एक असमर्थ सवाल बन
अपना वजूद तलाशता है;
लोग इसे धीरे-धीरे
मरना – मानते है;
मेरी इच्छानुसार धारण की गई चुप्पी को
हर कोई धीमा ज़हर समझता है.

जब बर्फ की उस सिल्ली के बाहर की
दुनिया से जो भी चीज़
सिल्ली की मोटाई से होते हुए
गर्मजोशी के साथ मेरी ओर आती है;
तब मैं उसकी गर्माहट और
अपने अंत:मन के तापमान में
कोई अंतर नहीं पाती हूँ.

फिर सोचती हूँ, क्या मेरे
अंदर का ठंडापन भी
बाहर निकलते वक्त
उनके लिए भी
‘कोई अंतर नहीं’- बन जाता है?
यह सोचते-सोचते
मैं पूरी रात काट देती हूँगी.

मैं जानती हूँ
दिन-प्रतिदिन मोटे हो रहे बर्फ के भीतर
मेरा वजूद धुंधला होते जा रहा है;
इक दिन ऐसा भी आएगा
जब हाथ फिराने पर भी मुझे
बर्फ की गहराई तक नहीं दिखेगी.

मगर उस वक्त भी मैं
यह जानती हूँगी कि
बर्फ के सिल्ली के इस पार से
गर्माहट अब भी अंदर जाती होगी;
और बर्फ के सिल्ली के उस पार
मैं अब भी रहती हूँगी.

Tuesday, November 30, 2010

कैसे करूँ शिकायत तुमसे मैं?

मैं तेरी याद की पोटली
अब भी रोज खोलती हूँ;
कुछ बची रोटियाँ प्यार की,
वक्त के तवे में गर्म करती हूँ.

फिर कुछ बासी, मगर मीठे पल की
बची – खुची चटनी खोजती हूँ;
नहीं तो, कुछ ताजे सच से उपजे
तीखे मिर्च के साथ ही इन्हें परोसती हूँ.

एक कोने पर चुटकी - भर नमक
तुम्हारी चुप्पी की, चुपचाप पड़े रहती है;
एक टूटा हुआ मन का गिलास,
अश्रुओं से अब भी लबालब रहता है.

मेरे एकाकीपन की थाली में
तुम रोज कुछ बन के आ जाते हो;
कैसे करूँ शिकायत तुमसे मैं?
किसी रात भूखे भी तो नहीं रहने देते हो.

Friday, November 26, 2010

अब भी तुम्हारी याद बहुत आती है.....

अब भी तुम्हारी याद बहुत आती है,
हर शाम के साथ तुम्हारे नाम की तनहाई
मेरे कमरे में चली आती है;
मैं भी रोज मन के ताले खोल
बीते पलों की चादर बिछाने लगती हूँ.

जोड़ती हूँ बारम्बार उन टूटी हुई खुशियों को,
तुम फिर से नये बिम्ब में उभर आते हो;
वक्त की दरारें साफ़ झलकती है, फिर भी
तुम उन दरारों के ओट से जाने कैसे मुस्कुराते हो?

इक-इक चीज़ अब भी वैसी ही सहेजी है,
जैसे तुम छोड़ गए हो;
बस वो बादाम के छिलके,
नाम लिखा था तुम्हारा जिन पर,
शायद तुम्हारे पास ही रह गए है.

एक लाल रंग का ऊन का धागा
अब भी उँगलियों के बीच फंसता है;
दूसरे सिरे पर तुम्हारे हाथ अब भी हो
शायद, मुझको जैसे यह बतलाता है.

तुम्हारे एक कुरियर का इंतज़ार
मन अब भी करते रहता है;
भूल चुके जिस ‘overall’ को तुम,
उसमें जमी ग्रीस की महक मुझे
अक्सर मृगतृष्णा की दौड़ दौड़ाती है.

इन सब के बावजूद भी तुम मेरे ख्यालों को
और गुमराह करने से बाज नहीं आते हो;
अपनी इक ड्रैकुला-वाली हँसी सुनवा के
इक घुँघरू अपने मौजूद होने के भ्रम का,
मेरी चुन्नी में टाँक जाते हो.

जानती हूँ तुम नहीं आनेवाले,
मन की आस मैं रुकने नहीं देती;
बुझे हुए दीये के साथ ही सही
मन दूर तलक फैले अँधियारे में
अब भी बहुत हिम्मत कर जाता है.


*Overall-- एक प्रकार का वस्त्र जो अक्सर मशीनरी काम करते वक्त पहनते है. शर्ट और पैंट को जैसे कमर से जोड़ दिया गया हो और गले से पैर तक चेन लगा रहता है.

‘तुम’-रहित जिंदगी चाहिये.....

रोज-रोज की कोशिश कि
आज तो जल्दी सो जाऊँगी.
जिस तरह सब बदल जाते है
तो मैं भी बदल जाऊँगी.

ऐसे कितने ही खुद से किये वादों से
मेरी लाचारगी की अलमारी भरी हुई है.
तुम्हें भुलाने के लिए कई कसमें
तो अब भी अजन्मी ही रह गई है.

तुम इक दिन आना जरूर
अपना ‘कुछ रह गया’ सामान
हो सके तो लेते जाना;
मेरे चेहरे में हर रात एक लकीर
जनमती है, अपनी हथेली में
अपना नाम समेटते हुए जाना.

एक कसमसाहट है, नींद के लिए नहीं,
तुम्हारे अब भी होने के अहसास से;
मन कहता है सर्जरी करवा लूँ,
अलग हो जाऊँ इस दिलोदिमाग से.

मेरे चाहने न चाहने पर भी
जब सुबह हो कर ही रहती है,
तो क्यूँ मेरे कमरे की घड़ी की सुईयाँ
अब भी तुझ पर ही टिकी रहती है?

जागने की इच्छा भी बलवती होने लगेगी,
तुम बस पल के हजारवें हिस्से में भी न आना;
‘तुम’-रहित जिंदगी चाहिये, नींद अजूबा न हो जिसमें,
हो गर अविश्वास तो बस तुम्हारा याद आ जाना.

Thursday, November 25, 2010

लव आज कल - भाग ४

जिंदगी जैसे इक अजीब किताब बन गई हो, और इससे भी अजीब बात ये कि जिधर देखूं तेरा ही नाम लिख गई हो. कभी-कभी बिन देखे ही कई पन्ने पलट डालती हूँ कि अगले पन्ने पर तो कुछ और नज़र आ जाएँ शायद. मगर ये नज़र जैसे तुम्हारी चेहरे के चाशनी में डूब के आई है, जिधर नज़र डालूं वहीँ पर नाम तुम्हारा उकेरने लगती है. आँखें इस डर से अक्सर बंद कर लेती हूँ, अक्सर अंधेरों में बंद हो जाना चाहती हूँ. ये आँखें भी अब थकने लगी है, कभी-कभी मुझे भी पथरायी हुई नज़रों से देखने लगती है कि और कितना मुझसे लिखवाओगी? कभी-कभी सोचती हूँ दुनिया की नज़रों से कि ये जो मैं कर रही हूँ वह सही नहीं है. तुम्हें भुलाने की कोशिश में अपने परिवार को भी मैं कहीं पीछे छोड़ आई हूँ. जुड़ने को कोशिश करती हूँ हर बार मगर घर नहीं जाने का कोई न कोई बहाना मिल जाता है. ये प्यार सही में कमबख्त चीज़ है, लगती है तो संसार छूट जाता है. न लगे तो संसार भी अधूरा-सा क्यूँ लगता है? क्या सही में ऊपर में कोई रहता है? उसे कोई इतना जरूर बता देना, कि वाह रे ! जिंदगी बनानेवाले तुझे ही इससे ठीक तरह से खेलना आता है. हमने तो मिटटी के खिलौने के टूटने पर भी कई-कई दिन तक आँसू बहाए थे.

मगर न तो वो समझता है मुझे और न ही तुम. रहा-सहा जो मुझे समझ में आता है तो बस यही कि तुम दोनों को ही खेलना अच्छी तरह से आता है. इसीलिए तुम फिर आने की जिद किये थे न! और वो उपरवाला! वह भी सारे प्यादे तुम्हारे अनुसार बिछाए जा रहा था. जब श्यामली ने मुझे ‘लव आज कल’ देखने के लिए बुलाया था, तो तुम्हारी भी देखने की जिद कितनी सही थी, ये तो उस वक्त सिर्फ तुम ही जानते थे.

“मोमो! कल हम श्यामली के यहाँ जा रहे है. उसने मुझे मूवी और एक जगह ले जाने का वादा किया है.”—मैं चहकते हुए उससे कह रही थी.

“अच्छा! कौन-सी मूवी देखने का प्लान है तुम दोनों का?”- उसने धीरे-से मुझसे पूछा.

“लव आज कल—जिसका वो वाला गाना तुमने मुझे सुनाया था न .... तेरा होने लगा हूँ, खोने लगा हूँ.... वो वाला मूवी, मोमो!” – मैं उसे और सरप्राईज़ देने के लिए या उसे चिढ़ाने के मकसद से खूब मजे से सुना रही थी.

“मुझे भी देखनी है.....................तुम्हारे साथ.”—उसने यह बात इतने प्यार से कही कि मुझे एक पल को लगा कि मुझे भी मोमो के ही साथ देखनी है. क्यूँ किया श्यामली को हाँ-हाँ?

“तो तुम श्यामली को बोलो न. मैं बार-बार झूठ नहीं बोल सकती. और वैसे तुम को सही में मेरे साथ मूवी देखने का मन है या मुझे बना रहा है अपनी बाकी गर्लफ्रेंड्स की तरह. देखो मुझे उनके जैसा ट्रीट मत करना. ओके?”—अपने मन को मैंने संयमित रखते हुए कहा.

“तुम पहली वो लड़की हो, जिसे मैं चाहकर भी बनाना नहीं चाहता. तुम बहुत अच्छी हो उल्लू.”—कुछ देर तक चुप्पी आ गई थी बीच में हमदोनो के.

“अच्छा-अच्छा ठीक है. आना है तो आ जाना मुझे तो और अच्छा लगेगा अगर तुम भी साथ रहे तो. और अब मैं तुम्हारे साथ ही मूवी देखूंगी. मगर कैसे वो तुम जानो.”—उसकी चुप्पी को काटते हुए मैंने जल्दी-जल्दी में कहा.

‘और हाँ, कल दरअसल हमारी एक और सहेली आ रही है जो श्यामली के वहाँ रुकेगी. इसीलिए हम तीनों ने मिलने का प्लान बनाया था. अब इसमें तुम कैसे फिट हो सकते हो ये तुम जानो.”— मैंने उसकी परेशानी को बढ़ाने में कोई कसर नहीं छोड़ी. मगर ये मेरा सिर्फ भ्रम था.

“अरे सही! तुम्हारी सहेली के साथ मूवी देखने में ज्यादा मज़ा आएगा.”—उसे और भी जानने का मन हो आया कि कौन है वो? कैसी है वगैरह-वगैरह और मुझे नारीसुलभ चिढ़.

“कल ही मिल के जान लेना. मैं बोलूंगी भी तो भी तुम्हें कम ही लगेगा.”—इतना कह कर मैंने सारी जिम्मेदारी उसपे थोप दी.

शाम होते ही लैब में काम खतम कर के मैं जैसे-तैसे खड़गपुर रेलवे स्टेशन पहुंची और जो पहली ट्रेन मिली उसमें बैठते ही ऊंघने लगी. ट्रेन में सोना कितना सुखद होता है, ये मेरे जैसा घुमंतू प्राणी ही जान सकता है. उस पर से उसका फोन फिर-से आ जाता है—“हे उल्लू! तुम आज आ रहा है ना?”

“कोई शक? मैं अभी ट्रेन में बैठी हूँ.”—मैंने उसे नींद तोड़ने के खामियाजे के तौर पर लगभग चिढ़ते हुए कहा.

“ओके ओके! कब तक हावड़ा पहुंचेगा?”

“जब ट्रेन वहाँ पहुंचेगा”—अब मैं उसे फिर-से उल्टा जवाब दिया.

“ओके. जब भी आओ बाहर मेरा इंतज़ार करना. मैं तुम्हें श्यामली के यहाँ ड्रॉप कर दूँगा.”

“क्या...............?”-- मैंने चौंकते हुए उससे पूछा.

“हाँ. और मेरे पहुँचने से पहले वहाँ से हिलना मत. ओके. ओवर एंड आउट.”—इतना कह कर उसने फोन रख दिया. और मेरा सिर चकराने लगा कि उसके साथ मैं अपनी सहेली के घर कैसे जाऊँगी? फिर सोचा इतना सोचने से अच्छा है कि सो लिया जाये.

हावड़ा पहुँच कर मैंने उसे फिर से कॉल किया यह बताने के लिए कि मैं इंतज़ार कर रही हूँ.

“क्या तुम पहुँच गयी हो? ओके एक काम करो, वहाँ से फेरी लेके बाबूघाट तक आ जाओ.”

फेरी के पास पहुंची तो बहुत देर हो गई थी. ८.३० बज गए थे सो मैंने टैक्सी कर लिया. टैक्सी जब बाबुघाट के पास आने लगी तो मेरी नज़रें उसे ढूँढने लगी. मेरी टैक्सी उसी के बाइक के पीछे लगी थी. वह भी मुझे पहचानने की कोशिश कर रहा था. उसने लाल रंग की एक टी-शर्ट पहन रखी थी. उसकी आँखें उस लाल रंग के साथ कुछ अजीब-सी शोखी लिए हुए था. शायद पहली बार मेरा दिल जोर-जोर से धड़कने लगा था, जब मैं टैक्सी से बाहर निकलने की कोशिश कर रही थी. दरअसल मुझे उससे सामना करने में डर लग रहा था. पता नहीं क्यूँ? मैं उसके बाइक तक किस तरह से गई, ये आज भी याद करती हूँ तो अपनी उस बेवकूफी पर बहुत हंसी आती है. वह मुझे ऊपर से नीचे देखते हुए हँसे जा रहा था. उसकी उस बेशर्म हंसी को जी में आया था उसकी ड्रैकुला वाली दाँतों के बीच दबाकर बंद कर दूँ.


उसने एक हेलमेट मेरी ओर बढ़ाया और कहा -- “इसे पकड़ के बैठना, और जब कहूँ तो बस लगा लेना.”

“क्या?????? ये कहाँ से उठा के लाये हो? और इसे पहनने से सिर के बचने की उम्मीद बचती भी है क्या?—उसकी टूटी-फूटी हालत देख कर मैंने उसे गुस्से में कहा.

“तुमको पहनने कौन बोल रहा है? बस पकडे रहो. जरूरत पड़ी तो ही लगाना. वैसे जरूरत नहीं पड़ेगी, मैं उससे तेज भगा ले जाऊँगा.”—वह हँसते हुए मुझे बैठने का इशारा किया.

खैर उसकी बात मानने में ही भलाई थी. बस संकोच यही था कि पहली बार पापा-भैया-अंकल के बाद किसी और के बाइक के पीछे बैठनेवाली थी मैं कुछ ही पलों में.

मेरे बैठने के बाद उसने मुझे इतना टेढा-मेढा घुमाया कि थोड़े ही देर के बाद मैं भी उस जैसी हो ली. बहुत मज़ा आने लगा था. कुछ ही देर के बाद हम एक फ्लाई ओवर के एक छोर में खड़े थे. उसने मुझसे पूछा—“डर नहीं लगता है ना.”

“आज डरने का मन नहीं है.”—मुझे उस सुनसान-से फ्लाई ओवर को देख के समझ में आ गया था कि अब आगे क्या होनेवाला है.

“ओके तो १०० का टारगेट फिर.”—इतना कहते ही उसने बाइक की स्पीड बढ़ा दी. उस रात को भी पूरा फ्लाई ओवर जैसे हमदोनो के लिए ही खड़ा था.

४०....५०.....६०....७०....८०..... ......... हमदोनो ही स्पीड चेक कर रहे थे.

“मैं यहाँ पर हमेशा १०० पार कर लेता हूँ, मगर अकेले. आज तुम्हारे साथ देखते है कितना हो पाता है.”—उसने चिल्लाते हुए मुझे सुनाने के लिए कहा.

“आज भी १०० करेगे. वरना मैं कभी १०० ऐसे नहीं देख पाऊँगी.”—मुझे भी उस सफर में मजा आने लगा था. मैं अपने हथेली को हवा में रख कर स्पीड को महसूस भी करते जा रही थी.

“८५......९०................१००....................” – मुझे उस समय बस ऐसा लग रहा था. ये समय ऐसे ही रुक जाना चाहिये. बहुत दिनों के बाद मैंने जी भर के सांसें ली थी. वो भी उसके साथ, जिसके साथ पता नहीं मगर कुछ-कुछ घंटियों के बजने जैसा महसूस हो रहा था.

बस उस समय अपनी एक बहुत ही अच्छी सहेली की एक बात याद आ गई, “ मुझे उसके साथ बैठ कर बातें करते वक्त कुछ वैसा नहीं लगा कि मैं शादी के लिए हाँ कर दूँ”—यह उसने तब कहा था जब शादी के लिए एक प्रस्ताव आया था. मैंने उससे फिर पूछा – “अच्छा –खासा प्रोफाइल तो था, फिर क्या सोचने लगी तुम?”

“अरे! वो होता है ना..... जैसे शाहरुख को सुष्मिता को देख के होता था, तुम्हारे आस-पास अपने आप गिटार, पियानो, वायलिन सब बजने लगते है. बस वैसा थोड़ा-सा भी नहीं हुआ ना?”

मैं उसके इनकार की इस वजह पर कैसे प्रतिक्रिया व्यक्त करूँ? यह तब समझ में नहीं आ रहा था. मगर अब? उसकी बात को सच मानने पर मजबूर हो रही थी. उसके पीछे बैठे मैंने जाने कितने आंकलन करने में व्यस्त थी, और वो भी पता नहीं कि किस बात के लिए ये सब मैं करने लगी हूँ?

१० बजने को थे, हमदोनों सिटी-सेंटर में पिज्ज़ा हट की तरफ बढ़ गए. एक-दूसरे के साथ इतना समय साथ में बिताना कुछ अजीब-सा लग रहा था. पहली बार तो ऐसा नहीं लगा था , ये सोच के भी मैं पशोपेश में थी. इस बीच श्यामली को चिंता होने लगी थी कि मैं अब तक क्यूँ नहीं आ रही? उसके फोन आने शुरू हो गए. किसी तरह से उसे समझाया कि अपने कुछ और दोस्तों के साथ डिनर पर आई हूँ. उन्ही के साथ घर भी आ जाऊँगी. अमृत अपार्टमेंट के पास मुझे एक गली तक छोड़ आया. आगे और साथ नहीं दे सका कि श्यामली देख लेगी तो कुछ और समझ न ले. वह तब तक मुझे देखता रहा जब तक कि मैं अपार्टमेंट के अंदर नहीं चली गई. फिर उसका फोन भी आया, घर में दाखिल से पहले. हमेशा से अपनी फिक्र मैं खुद ही करती आई हूँ, मुझे ऐसा कोई भी दिन याद नहीं जब मुझे लड़की होने के नाते कोई ज्यादा ख़याल रखा गया हो घर में. कैसे घर से खुद ही निकली थी, जिसे बाहरी दुनिया का जरा सा भी गुमान नहीं था, यह मैं ही जानती हूँ. आज तो अच्छा लगता है कि इसी कारण मैं स्वालम्बी जरूर बन गई, मगर उस समय अपने पापा पे बहुत गुस्साया करती थी, जब वो मेरी एक भी मदद नहीं करते थे यह बोल के अपना काम और निर्णय खुद से करना सीखो. आज पहली बार किसी अनजाने से इतना मेरे लिए फिक्रमंद होते देख मेरे में पता नहीं कैसे लड़की वाले छुई-मुई के गुण आ गए. स्वयं में आये इस बदलाव से मुझे हंसी भी आ रही थी और साथ-ही साथ अच्छा भी तो लग रहा था.

श्यामली और गिन्नी दोनों की झाड़ खाने के बाद हम तीनों रात भर बातें करते रहे. सुबह मूवी का प्लान बना जो आलस के साथ शाम के ४ बजे के शो पर जा के टिकी. सुबह-सुबह अमृत श्यामली से बात करके अपनी टिकट भी बुक करवा लिया. बस अब सिर्फ शाम का इंतज़ार हो रहा था, मुझे तो जरूर और शायद उसको भी, उसका पल-पल एस एम एस जो आ रहा था.

Sunday, November 14, 2010

एक दीपावली ऐसी भी......

खुशियों और आशाओं के नये दीप जलाने आई ये दीपावली का त्यौहार कैसे गुजर गया , पता ही नहीं चला. चलिए आपको आज आई.आई.टी. खड़गपुर में दीपावली कैसे मनाई गयी, यह दिखाती हूँ. हमारे यहाँ दीपावली के लिए तैयारी महीने-भर पहले से ही शुरू हो जाती है. यहाँ हर वर्ष छात्रावासों में रहनेवाले छात्रों के लिए रंगोली व दीप-प्रज्वलन (आम बोल-चाल  में 'इलू' जो कि illumination से बना है) की प्रतियोगिता होती है. अब आप सोच रहे होगे इसमें कौन सी नयी बात है? बात है, जिसे मैं आपको छायाचित्रों के माध्यम से ही समझा सकती हूँ. तभी आप समझ सकते है कि क्यूँ हम छात्र महीने भर पहले से कमर कस लेते है. पहले आप रंगोली का मजा लीजिए--








 










 

नीचे दिए गए चित्र को देखने से पहले यह जान ले कि यह एक ही रंगोली है फर्क सिर्फ यही है कि एक हरे रंग की रौशनी में दीखती है और दूसरी लाल रंग की रौशनी में. ध्यान से देखियेगा.











नीचे रवींद्रनाथ टैगोर जी की तस्वीर व उनकी बनायीं हुई तस्वीरों को रंगोली में उकेरने की कोशिश की गयी है.




अब आपको इलू के भी कुछ चित्र दिखाती हूँ यहाँ पर, जो विभिन्न छात्रावासों में बनायीं गयी है. इसके लिए बांस से बनी  लगभग १२x१२ फीट तक की चटाई का उपयोग किया जाता है. इन चटाईयों में दीयों को तार से बाँधा जाता है और मनोवांछित आकार बनाया जाता है, जिन्हें आप इन चित्रों में देख सकते है --

स्वर्ण मंदिर पर-

सिखों के दस गुरुओं पर-




महत्मा बुद्ध पर-



समुंद्र-मंथन पर-

समय-चक्र पर-

 पूरी के जगन्नाथ मंदिर पर-








कुछ सजावट छाया कला पर भी देखिये--








आमतौर पर बी. टेक. के छात्र बढ़-चढ़ कर इसमें हिस्सा लेते है, उनकी तैयारी आप इन चित्रों में देख सकते है- 




अब इतना देख लिए है तो हमारे हॉस्टल की तैयारी भी देख लीजिए जिसके लिए कुछ दिनों से मेरी ब्लॉग्गिंग बंद हो गई थी. हमने कोणार्क मंदिर बनाने की कोशिश की थी --

यह मैं हूँ...... 








दीपावली के दिन सारे दीप जलने के बाद--



मैंने कुछ ज्यादा ही फोटो लगा दिए है. कोई नहीं, आराम से देखिएगा, मगर जरूर देखिएगा.