Wednesday, April 21, 2010

क्या जरूरी था?

सोचती हूँ, क्या जरूरी था?
तुम्हारा मेरे जीवन में इस तरह आना,
आके फिर न वापस आने के लिए लौट जाना,
और पीछे ढेर सारी मुश्किलों से मुझे
अकेले लड़ते रहने के लिए छोड़ जाना.

सोचती हूँ, क्या जरूरी था?
मुझे इस तरह के सपने देखते रहना,
हर समय हरे रंग का चश्मा पहने रहना,
और सूरज को दूर क्षितिज में भेज
उसकी गहराई को नापते रहना.

सोचती हूँ, क्या जरूरी था?
तुम्हारी हर बातों को बार-बार दोहराते रहना,
तकलीफ को भी और तकलीफ देकर मुस्कुराना,
और इस तरह तुम्हें सदा के लिए,
स्वयं में आत्मसात कर लेना.

सोचती हूँ, क्या जरूरी था?
तुम्हारे ही जीवन का एक हिस्सा बनना,
तुम्हारी मुस्कुराहट, जरूरत, हर चीज़ का उत्तर बनना,
और तुम्हारे ही हाथों से तुमसे
इस तरह अलग होना, यह स्वीकारना.

हाँ, जरूरी था !
तुम्हारा आना, फिर जाना, अहसासों का घटना-बढ़ना,
दुनिया को तुम्हारे अनुसार चलने के लिए मेरा रुकना,
तुम और तुमसे जुड़े लोगों की ख़ुशी बने रहना,
मेरी हाथों की ह़र लकीरों का मतलब सच होना,
और इन सबके लिए मेरा टूटना.

बहुत जरूरी था.....

Thursday, April 15, 2010

क्यूँ बंद नहीं होता?

अब मैं भी दिमाग से काम
लेने लगी हूँ;
सोचती हूँ, क्यूँ तुम्हें इस तरह
याद करने में लगी हुई हूँ मैं?

तुम चले गए हो, तो इन
सबको भी चले जाना चाहिए;
क्यूँ अब भी इन पलों से, भींगी पलकों व
तुम्हारी बातों से सजा करती हूँ मैं?

यथार्थ में तो तुम मेरे लिए
कभी थे ही नहीं;
फिर भी तुम्हारे साथ जैसे जी रही हूँ मैं,
ये कैसे सपने में खोई हुई हूँ मैं?

हाँ, अब इस दरवाजे को बंद कर देना चाहिए,
जिससे होके तुम कभी आये थे;
तुम्हें यकीं न हो शायद, मगर जिस पल से तुम चले गए,
तबसे इसकी कुण्डी बंद करने में लगी हुई हूँ मैं.

फिर क्यूँ बंद नहीं होता? तो याद आता है कि
तुम्हारे मोज़े का एक जोड़ा व एकाध कपडे,
जो तुमने धोने के लिए पानी में भिगोये थे;
मुझे उनको धोकर सुखाना है पहले,
शायद इसी सोच में अब तक पड़ी हूँ मैं.

Monday, April 12, 2010


तुम्हारे आने की बातें अब मेरी खिड़की पर भी होने लगी है.....
इन पंछियों की चहकने की वज़ह भी तुमसे शुरू होने लगी है.....
आ जाओ कि न चाहते हुए भी तुम इन लोगों के बीच बँटने लगे हो,
मेरे इंतजार की घड़ियों में भी अब सबकी नज़र पड़ने लगी है.....

Friday, April 9, 2010

मेरे पास वक़्त नहीं है.....

मेरे पास वक़्त नहीं है,
अब कुछ भी सोचने के लिए
अपने लिए अब और कुछ करने के लिए.

मेरे पास वक़्त नहीं है,
अब सबकी बातें सुनने व समझने के लिए
उनकी जगह स्वयं को रख परखने-तौलने के लिए.

मेरे पास वक़्त नहीं है,
तुम्हारे मन को अब और पढ़ने के लिए
तुम्हारे लिए अंतहीन प्रतीक्षा के लिए भी.

हाँ, क्यूँकि कल रात मैंने वक़्त को
आँसुओं के कम्बल में लपेट कर
उसके हर कतरे को जला दिया है.

और बचे-खुचे, जो राख बन उड़-फिर रहे है,
उन पर अपनी मरी हुई इच्छाओं की
शोक-माला ओढ़ा दी है.

ताकि कोई भी देखे तो यही कहे कि-
बड़ा ही भला था ये वक़्त मगर
किस्मत की मार इसको भी लग गयी.
जिन आँखों में जनमा, वहीं वक़्त से पहले
आज इसकी मौत हो गयी.

इसलिए मेरे पास आज वक़्त नहीं है,
यादें है मगर कोई जिंदा वक़्त नहीं है.....