Tuesday, November 30, 2010

कैसे करूँ शिकायत तुमसे मैं?

मैं तेरी याद की पोटली
अब भी रोज खोलती हूँ;
कुछ बची रोटियाँ प्यार की,
वक्त के तवे में गर्म करती हूँ.

फिर कुछ बासी, मगर मीठे पल की
बची – खुची चटनी खोजती हूँ;
नहीं तो, कुछ ताजे सच से उपजे
तीखे मिर्च के साथ ही इन्हें परोसती हूँ.

एक कोने पर चुटकी - भर नमक
तुम्हारी चुप्पी की, चुपचाप पड़े रहती है;
एक टूटा हुआ मन का गिलास,
अश्रुओं से अब भी लबालब रहता है.

मेरे एकाकीपन की थाली में
तुम रोज कुछ बन के आ जाते हो;
कैसे करूँ शिकायत तुमसे मैं?
किसी रात भूखे भी तो नहीं रहने देते हो.

Friday, November 26, 2010

अब भी तुम्हारी याद बहुत आती है.....

अब भी तुम्हारी याद बहुत आती है,
हर शाम के साथ तुम्हारे नाम की तनहाई
मेरे कमरे में चली आती है;
मैं भी रोज मन के ताले खोल
बीते पलों की चादर बिछाने लगती हूँ.

जोड़ती हूँ बारम्बार उन टूटी हुई खुशियों को,
तुम फिर से नये बिम्ब में उभर आते हो;
वक्त की दरारें साफ़ झलकती है, फिर भी
तुम उन दरारों के ओट से जाने कैसे मुस्कुराते हो?

इक-इक चीज़ अब भी वैसी ही सहेजी है,
जैसे तुम छोड़ गए हो;
बस वो बादाम के छिलके,
नाम लिखा था तुम्हारा जिन पर,
शायद तुम्हारे पास ही रह गए है.

एक लाल रंग का ऊन का धागा
अब भी उँगलियों के बीच फंसता है;
दूसरे सिरे पर तुम्हारे हाथ अब भी हो
शायद, मुझको जैसे यह बतलाता है.

तुम्हारे एक कुरियर का इंतज़ार
मन अब भी करते रहता है;
भूल चुके जिस ‘overall’ को तुम,
उसमें जमी ग्रीस की महक मुझे
अक्सर मृगतृष्णा की दौड़ दौड़ाती है.

इन सब के बावजूद भी तुम मेरे ख्यालों को
और गुमराह करने से बाज नहीं आते हो;
अपनी इक ड्रैकुला-वाली हँसी सुनवा के
इक घुँघरू अपने मौजूद होने के भ्रम का,
मेरी चुन्नी में टाँक जाते हो.

जानती हूँ तुम नहीं आनेवाले,
मन की आस मैं रुकने नहीं देती;
बुझे हुए दीये के साथ ही सही
मन दूर तलक फैले अँधियारे में
अब भी बहुत हिम्मत कर जाता है.


*Overall-- एक प्रकार का वस्त्र जो अक्सर मशीनरी काम करते वक्त पहनते है. शर्ट और पैंट को जैसे कमर से जोड़ दिया गया हो और गले से पैर तक चेन लगा रहता है.

‘तुम’-रहित जिंदगी चाहिये.....

रोज-रोज की कोशिश कि
आज तो जल्दी सो जाऊँगी.
जिस तरह सब बदल जाते है
तो मैं भी बदल जाऊँगी.

ऐसे कितने ही खुद से किये वादों से
मेरी लाचारगी की अलमारी भरी हुई है.
तुम्हें भुलाने के लिए कई कसमें
तो अब भी अजन्मी ही रह गई है.

तुम इक दिन आना जरूर
अपना ‘कुछ रह गया’ सामान
हो सके तो लेते जाना;
मेरे चेहरे में हर रात एक लकीर
जनमती है, अपनी हथेली में
अपना नाम समेटते हुए जाना.

एक कसमसाहट है, नींद के लिए नहीं,
तुम्हारे अब भी होने के अहसास से;
मन कहता है सर्जरी करवा लूँ,
अलग हो जाऊँ इस दिलोदिमाग से.

मेरे चाहने न चाहने पर भी
जब सुबह हो कर ही रहती है,
तो क्यूँ मेरे कमरे की घड़ी की सुईयाँ
अब भी तुझ पर ही टिकी रहती है?

जागने की इच्छा भी बलवती होने लगेगी,
तुम बस पल के हजारवें हिस्से में भी न आना;
‘तुम’-रहित जिंदगी चाहिये, नींद अजूबा न हो जिसमें,
हो गर अविश्वास तो बस तुम्हारा याद आ जाना.

Thursday, November 25, 2010

लव आज कल - भाग ४

जिंदगी जैसे इक अजीब किताब बन गई हो, और इससे भी अजीब बात ये कि जिधर देखूं तेरा ही नाम लिख गई हो. कभी-कभी बिन देखे ही कई पन्ने पलट डालती हूँ कि अगले पन्ने पर तो कुछ और नज़र आ जाएँ शायद. मगर ये नज़र जैसे तुम्हारी चेहरे के चाशनी में डूब के आई है, जिधर नज़र डालूं वहीँ पर नाम तुम्हारा उकेरने लगती है. आँखें इस डर से अक्सर बंद कर लेती हूँ, अक्सर अंधेरों में बंद हो जाना चाहती हूँ. ये आँखें भी अब थकने लगी है, कभी-कभी मुझे भी पथरायी हुई नज़रों से देखने लगती है कि और कितना मुझसे लिखवाओगी? कभी-कभी सोचती हूँ दुनिया की नज़रों से कि ये जो मैं कर रही हूँ वह सही नहीं है. तुम्हें भुलाने की कोशिश में अपने परिवार को भी मैं कहीं पीछे छोड़ आई हूँ. जुड़ने को कोशिश करती हूँ हर बार मगर घर नहीं जाने का कोई न कोई बहाना मिल जाता है. ये प्यार सही में कमबख्त चीज़ है, लगती है तो संसार छूट जाता है. न लगे तो संसार भी अधूरा-सा क्यूँ लगता है? क्या सही में ऊपर में कोई रहता है? उसे कोई इतना जरूर बता देना, कि वाह रे ! जिंदगी बनानेवाले तुझे ही इससे ठीक तरह से खेलना आता है. हमने तो मिटटी के खिलौने के टूटने पर भी कई-कई दिन तक आँसू बहाए थे.

मगर न तो वो समझता है मुझे और न ही तुम. रहा-सहा जो मुझे समझ में आता है तो बस यही कि तुम दोनों को ही खेलना अच्छी तरह से आता है. इसीलिए तुम फिर आने की जिद किये थे न! और वो उपरवाला! वह भी सारे प्यादे तुम्हारे अनुसार बिछाए जा रहा था. जब श्यामली ने मुझे ‘लव आज कल’ देखने के लिए बुलाया था, तो तुम्हारी भी देखने की जिद कितनी सही थी, ये तो उस वक्त सिर्फ तुम ही जानते थे.

“मोमो! कल हम श्यामली के यहाँ जा रहे है. उसने मुझे मूवी और एक जगह ले जाने का वादा किया है.”—मैं चहकते हुए उससे कह रही थी.

“अच्छा! कौन-सी मूवी देखने का प्लान है तुम दोनों का?”- उसने धीरे-से मुझसे पूछा.

“लव आज कल—जिसका वो वाला गाना तुमने मुझे सुनाया था न .... तेरा होने लगा हूँ, खोने लगा हूँ.... वो वाला मूवी, मोमो!” – मैं उसे और सरप्राईज़ देने के लिए या उसे चिढ़ाने के मकसद से खूब मजे से सुना रही थी.

“मुझे भी देखनी है.....................तुम्हारे साथ.”—उसने यह बात इतने प्यार से कही कि मुझे एक पल को लगा कि मुझे भी मोमो के ही साथ देखनी है. क्यूँ किया श्यामली को हाँ-हाँ?

“तो तुम श्यामली को बोलो न. मैं बार-बार झूठ नहीं बोल सकती. और वैसे तुम को सही में मेरे साथ मूवी देखने का मन है या मुझे बना रहा है अपनी बाकी गर्लफ्रेंड्स की तरह. देखो मुझे उनके जैसा ट्रीट मत करना. ओके?”—अपने मन को मैंने संयमित रखते हुए कहा.

“तुम पहली वो लड़की हो, जिसे मैं चाहकर भी बनाना नहीं चाहता. तुम बहुत अच्छी हो उल्लू.”—कुछ देर तक चुप्पी आ गई थी बीच में हमदोनो के.

“अच्छा-अच्छा ठीक है. आना है तो आ जाना मुझे तो और अच्छा लगेगा अगर तुम भी साथ रहे तो. और अब मैं तुम्हारे साथ ही मूवी देखूंगी. मगर कैसे वो तुम जानो.”—उसकी चुप्पी को काटते हुए मैंने जल्दी-जल्दी में कहा.

‘और हाँ, कल दरअसल हमारी एक और सहेली आ रही है जो श्यामली के वहाँ रुकेगी. इसीलिए हम तीनों ने मिलने का प्लान बनाया था. अब इसमें तुम कैसे फिट हो सकते हो ये तुम जानो.”— मैंने उसकी परेशानी को बढ़ाने में कोई कसर नहीं छोड़ी. मगर ये मेरा सिर्फ भ्रम था.

“अरे सही! तुम्हारी सहेली के साथ मूवी देखने में ज्यादा मज़ा आएगा.”—उसे और भी जानने का मन हो आया कि कौन है वो? कैसी है वगैरह-वगैरह और मुझे नारीसुलभ चिढ़.

“कल ही मिल के जान लेना. मैं बोलूंगी भी तो भी तुम्हें कम ही लगेगा.”—इतना कह कर मैंने सारी जिम्मेदारी उसपे थोप दी.

शाम होते ही लैब में काम खतम कर के मैं जैसे-तैसे खड़गपुर रेलवे स्टेशन पहुंची और जो पहली ट्रेन मिली उसमें बैठते ही ऊंघने लगी. ट्रेन में सोना कितना सुखद होता है, ये मेरे जैसा घुमंतू प्राणी ही जान सकता है. उस पर से उसका फोन फिर-से आ जाता है—“हे उल्लू! तुम आज आ रहा है ना?”

“कोई शक? मैं अभी ट्रेन में बैठी हूँ.”—मैंने उसे नींद तोड़ने के खामियाजे के तौर पर लगभग चिढ़ते हुए कहा.

“ओके ओके! कब तक हावड़ा पहुंचेगा?”

“जब ट्रेन वहाँ पहुंचेगा”—अब मैं उसे फिर-से उल्टा जवाब दिया.

“ओके. जब भी आओ बाहर मेरा इंतज़ार करना. मैं तुम्हें श्यामली के यहाँ ड्रॉप कर दूँगा.”

“क्या...............?”-- मैंने चौंकते हुए उससे पूछा.

“हाँ. और मेरे पहुँचने से पहले वहाँ से हिलना मत. ओके. ओवर एंड आउट.”—इतना कह कर उसने फोन रख दिया. और मेरा सिर चकराने लगा कि उसके साथ मैं अपनी सहेली के घर कैसे जाऊँगी? फिर सोचा इतना सोचने से अच्छा है कि सो लिया जाये.

हावड़ा पहुँच कर मैंने उसे फिर से कॉल किया यह बताने के लिए कि मैं इंतज़ार कर रही हूँ.

“क्या तुम पहुँच गयी हो? ओके एक काम करो, वहाँ से फेरी लेके बाबूघाट तक आ जाओ.”

फेरी के पास पहुंची तो बहुत देर हो गई थी. ८.३० बज गए थे सो मैंने टैक्सी कर लिया. टैक्सी जब बाबुघाट के पास आने लगी तो मेरी नज़रें उसे ढूँढने लगी. मेरी टैक्सी उसी के बाइक के पीछे लगी थी. वह भी मुझे पहचानने की कोशिश कर रहा था. उसने लाल रंग की एक टी-शर्ट पहन रखी थी. उसकी आँखें उस लाल रंग के साथ कुछ अजीब-सी शोखी लिए हुए था. शायद पहली बार मेरा दिल जोर-जोर से धड़कने लगा था, जब मैं टैक्सी से बाहर निकलने की कोशिश कर रही थी. दरअसल मुझे उससे सामना करने में डर लग रहा था. पता नहीं क्यूँ? मैं उसके बाइक तक किस तरह से गई, ये आज भी याद करती हूँ तो अपनी उस बेवकूफी पर बहुत हंसी आती है. वह मुझे ऊपर से नीचे देखते हुए हँसे जा रहा था. उसकी उस बेशर्म हंसी को जी में आया था उसकी ड्रैकुला वाली दाँतों के बीच दबाकर बंद कर दूँ.


उसने एक हेलमेट मेरी ओर बढ़ाया और कहा -- “इसे पकड़ के बैठना, और जब कहूँ तो बस लगा लेना.”

“क्या?????? ये कहाँ से उठा के लाये हो? और इसे पहनने से सिर के बचने की उम्मीद बचती भी है क्या?—उसकी टूटी-फूटी हालत देख कर मैंने उसे गुस्से में कहा.

“तुमको पहनने कौन बोल रहा है? बस पकडे रहो. जरूरत पड़ी तो ही लगाना. वैसे जरूरत नहीं पड़ेगी, मैं उससे तेज भगा ले जाऊँगा.”—वह हँसते हुए मुझे बैठने का इशारा किया.

खैर उसकी बात मानने में ही भलाई थी. बस संकोच यही था कि पहली बार पापा-भैया-अंकल के बाद किसी और के बाइक के पीछे बैठनेवाली थी मैं कुछ ही पलों में.

मेरे बैठने के बाद उसने मुझे इतना टेढा-मेढा घुमाया कि थोड़े ही देर के बाद मैं भी उस जैसी हो ली. बहुत मज़ा आने लगा था. कुछ ही देर के बाद हम एक फ्लाई ओवर के एक छोर में खड़े थे. उसने मुझसे पूछा—“डर नहीं लगता है ना.”

“आज डरने का मन नहीं है.”—मुझे उस सुनसान-से फ्लाई ओवर को देख के समझ में आ गया था कि अब आगे क्या होनेवाला है.

“ओके तो १०० का टारगेट फिर.”—इतना कहते ही उसने बाइक की स्पीड बढ़ा दी. उस रात को भी पूरा फ्लाई ओवर जैसे हमदोनो के लिए ही खड़ा था.

४०....५०.....६०....७०....८०..... ......... हमदोनो ही स्पीड चेक कर रहे थे.

“मैं यहाँ पर हमेशा १०० पार कर लेता हूँ, मगर अकेले. आज तुम्हारे साथ देखते है कितना हो पाता है.”—उसने चिल्लाते हुए मुझे सुनाने के लिए कहा.

“आज भी १०० करेगे. वरना मैं कभी १०० ऐसे नहीं देख पाऊँगी.”—मुझे भी उस सफर में मजा आने लगा था. मैं अपने हथेली को हवा में रख कर स्पीड को महसूस भी करते जा रही थी.

“८५......९०................१००....................” – मुझे उस समय बस ऐसा लग रहा था. ये समय ऐसे ही रुक जाना चाहिये. बहुत दिनों के बाद मैंने जी भर के सांसें ली थी. वो भी उसके साथ, जिसके साथ पता नहीं मगर कुछ-कुछ घंटियों के बजने जैसा महसूस हो रहा था.

बस उस समय अपनी एक बहुत ही अच्छी सहेली की एक बात याद आ गई, “ मुझे उसके साथ बैठ कर बातें करते वक्त कुछ वैसा नहीं लगा कि मैं शादी के लिए हाँ कर दूँ”—यह उसने तब कहा था जब शादी के लिए एक प्रस्ताव आया था. मैंने उससे फिर पूछा – “अच्छा –खासा प्रोफाइल तो था, फिर क्या सोचने लगी तुम?”

“अरे! वो होता है ना..... जैसे शाहरुख को सुष्मिता को देख के होता था, तुम्हारे आस-पास अपने आप गिटार, पियानो, वायलिन सब बजने लगते है. बस वैसा थोड़ा-सा भी नहीं हुआ ना?”

मैं उसके इनकार की इस वजह पर कैसे प्रतिक्रिया व्यक्त करूँ? यह तब समझ में नहीं आ रहा था. मगर अब? उसकी बात को सच मानने पर मजबूर हो रही थी. उसके पीछे बैठे मैंने जाने कितने आंकलन करने में व्यस्त थी, और वो भी पता नहीं कि किस बात के लिए ये सब मैं करने लगी हूँ?

१० बजने को थे, हमदोनों सिटी-सेंटर में पिज्ज़ा हट की तरफ बढ़ गए. एक-दूसरे के साथ इतना समय साथ में बिताना कुछ अजीब-सा लग रहा था. पहली बार तो ऐसा नहीं लगा था , ये सोच के भी मैं पशोपेश में थी. इस बीच श्यामली को चिंता होने लगी थी कि मैं अब तक क्यूँ नहीं आ रही? उसके फोन आने शुरू हो गए. किसी तरह से उसे समझाया कि अपने कुछ और दोस्तों के साथ डिनर पर आई हूँ. उन्ही के साथ घर भी आ जाऊँगी. अमृत अपार्टमेंट के पास मुझे एक गली तक छोड़ आया. आगे और साथ नहीं दे सका कि श्यामली देख लेगी तो कुछ और समझ न ले. वह तब तक मुझे देखता रहा जब तक कि मैं अपार्टमेंट के अंदर नहीं चली गई. फिर उसका फोन भी आया, घर में दाखिल से पहले. हमेशा से अपनी फिक्र मैं खुद ही करती आई हूँ, मुझे ऐसा कोई भी दिन याद नहीं जब मुझे लड़की होने के नाते कोई ज्यादा ख़याल रखा गया हो घर में. कैसे घर से खुद ही निकली थी, जिसे बाहरी दुनिया का जरा सा भी गुमान नहीं था, यह मैं ही जानती हूँ. आज तो अच्छा लगता है कि इसी कारण मैं स्वालम्बी जरूर बन गई, मगर उस समय अपने पापा पे बहुत गुस्साया करती थी, जब वो मेरी एक भी मदद नहीं करते थे यह बोल के अपना काम और निर्णय खुद से करना सीखो. आज पहली बार किसी अनजाने से इतना मेरे लिए फिक्रमंद होते देख मेरे में पता नहीं कैसे लड़की वाले छुई-मुई के गुण आ गए. स्वयं में आये इस बदलाव से मुझे हंसी भी आ रही थी और साथ-ही साथ अच्छा भी तो लग रहा था.

श्यामली और गिन्नी दोनों की झाड़ खाने के बाद हम तीनों रात भर बातें करते रहे. सुबह मूवी का प्लान बना जो आलस के साथ शाम के ४ बजे के शो पर जा के टिकी. सुबह-सुबह अमृत श्यामली से बात करके अपनी टिकट भी बुक करवा लिया. बस अब सिर्फ शाम का इंतज़ार हो रहा था, मुझे तो जरूर और शायद उसको भी, उसका पल-पल एस एम एस जो आ रहा था.

Sunday, November 14, 2010

एक दीपावली ऐसी भी......

खुशियों और आशाओं के नये दीप जलाने आई ये दीपावली का त्यौहार कैसे गुजर गया , पता ही नहीं चला. चलिए आपको आज आई.आई.टी. खड़गपुर में दीपावली कैसे मनाई गयी, यह दिखाती हूँ. हमारे यहाँ दीपावली के लिए तैयारी महीने-भर पहले से ही शुरू हो जाती है. यहाँ हर वर्ष छात्रावासों में रहनेवाले छात्रों के लिए रंगोली व दीप-प्रज्वलन (आम बोल-चाल  में 'इलू' जो कि illumination से बना है) की प्रतियोगिता होती है. अब आप सोच रहे होगे इसमें कौन सी नयी बात है? बात है, जिसे मैं आपको छायाचित्रों के माध्यम से ही समझा सकती हूँ. तभी आप समझ सकते है कि क्यूँ हम छात्र महीने भर पहले से कमर कस लेते है. पहले आप रंगोली का मजा लीजिए--








 










 

नीचे दिए गए चित्र को देखने से पहले यह जान ले कि यह एक ही रंगोली है फर्क सिर्फ यही है कि एक हरे रंग की रौशनी में दीखती है और दूसरी लाल रंग की रौशनी में. ध्यान से देखियेगा.











नीचे रवींद्रनाथ टैगोर जी की तस्वीर व उनकी बनायीं हुई तस्वीरों को रंगोली में उकेरने की कोशिश की गयी है.




अब आपको इलू के भी कुछ चित्र दिखाती हूँ यहाँ पर, जो विभिन्न छात्रावासों में बनायीं गयी है. इसके लिए बांस से बनी  लगभग १२x१२ फीट तक की चटाई का उपयोग किया जाता है. इन चटाईयों में दीयों को तार से बाँधा जाता है और मनोवांछित आकार बनाया जाता है, जिन्हें आप इन चित्रों में देख सकते है --

स्वर्ण मंदिर पर-

सिखों के दस गुरुओं पर-




महत्मा बुद्ध पर-



समुंद्र-मंथन पर-

समय-चक्र पर-

 पूरी के जगन्नाथ मंदिर पर-








कुछ सजावट छाया कला पर भी देखिये--








आमतौर पर बी. टेक. के छात्र बढ़-चढ़ कर इसमें हिस्सा लेते है, उनकी तैयारी आप इन चित्रों में देख सकते है- 




अब इतना देख लिए है तो हमारे हॉस्टल की तैयारी भी देख लीजिए जिसके लिए कुछ दिनों से मेरी ब्लॉग्गिंग बंद हो गई थी. हमने कोणार्क मंदिर बनाने की कोशिश की थी --

यह मैं हूँ...... 








दीपावली के दिन सारे दीप जलने के बाद--



मैंने कुछ ज्यादा ही फोटो लगा दिए है. कोई नहीं, आराम से देखिएगा, मगर जरूर देखिएगा.