Monday, August 15, 2011

आज तुम स्वतंत्र हो...


स्वतंत्र हो आज तुम स्वतंत्र हो...
अपनी राह चुनने को,
उसमे भटकने को भी स्वतंत्र हो.....
तुम्हे कहने की आज़ादी है,
मौन रहने को भी स्वतंत्र हो.....
ऐसा देश है मेरा, ये सोचने
और न सोचने को भी स्वतंत्र हो....
दूर देश में परचम लहराने को,
पुरखों की आँगन बेचने को स्वतंत्र हो....
सच की गवाही परखने को,
झूठ की वकालत करने को स्वतंत्र हो....
तुम नई फसल खड़ी करने को,
पुरानी जड़ों को काटने को स्वतंत्र हो....
तुम स्वतंत्रता की परिभाषा को
उलटने को, भूलने को भी स्वतंत्र हो....
स्वतंत्र हो आज तुम स्वतंत्र हो...

Thursday, August 11, 2011

कशमकश.....

एक अजीब सी कशमकश है, एक जैसे चेहरों के बीच दूरियां दीखती है, और उन दूरियों में लिखी जाती है दूरियों की परिभाषा; मन चंचल होता तो है, मगर डोलना असहनीय-सा क्यूँ लगने लगता है उस धागे से बंधकर, जिसके अनगिनत मरोड़ों में कई कहानियां जमी, दबी-सी रहती है, और इन कहानियों के सुनने वाला कोई नहीं, वो भी नहीं जो इनके किरदार होते है; फिर एक हवा सरसराने लगती है, कान बंद करने का सवाल ही नहीं उठता, उसे जो कहना होता है, मेरे दिमाग में सोच बना के छोड़ जाती है; फिर सोचने की आदत बन जाती है अपने आप और एक दिन वो सोच को वहाँ रखना बंद कर देती है, जहाँ से मुझे चुनने की आदत लगी थी; आगे देखने को कुछ भी नहीं है, पीछे समय का पहाड़ इतना बड़ा हो चला है कि उससे होकर भी कुछ दीखता नहीं; आँख बंद करने से अंधकार भी दूर भाग जाती है, रोशनी आँखों में चुभती है तो रास्ता तो उजियारा हो जाता है, मगर कदम कहीं और गिरते है, पानी में डूबने के जैसा, और ज़मीन भी मुस्कुरा कर साथ छोड़ देती है; अंदर से एक पुकार आती है, 'मैं हूँ'...... तो मैं कौन हूँ? हाथ फिर किसी नए सोच से टकराते है, इस बार रखनेवाला पहले से ज्यादा अपरिचित-सा मालूम पड़ता है, नहीं सोचने की ताज़ी-ताज़ी आदत फिर टूटने लगती है, कशमकश का दायरा फैलने लगता है, दूरियां पहले से लंबी लगने लगती है, मन अब पहली बार खुद से सवाल पूछता है कि कौन नजदीक लग रहा अब तुम्हे? और कौन जाना हुआ-सा? मुझे मालूम है ये बेताल का प्रश्न है, जवाब देकर भी उसी कशमकश में डूबना है, जिसमे तैरने की मनाही है. अजीब सी कशमकश है......