Sunday, February 19, 2012

'तुम', 'याद’, 'समय' व ‘गाँठ’


उधड़ी हुई जिंदगी के अवशेषों में से
एक ‘तुम’ जैसा उच्चारित शब्द
अब भी उस बटन की भाँति
आधा टंका, आधा लटका - सा,
समय के कुछ क्षीण - से पलों में
बिंधा गया था जो कभी मेरे मन से,
तुम्हें 'याद' शब्द से बाँधे हुए तो है;

मगर उसके बीच ‘समय’ शब्द के
बारम्बार उच्चारण से उत्पन्न
सदियों जितनी लंबी दूरी से बने धागे के
एक सिरे से जुड़े ‘तुम’ शब्द का
समय के उस परिधि में छूट जाना,
जो सूर्य के अनगिनत फेरे लेने पर भी
पृथ्वी को दोबारा हासिल नहीं होती,
व दूसरे सिरे का हाथों में ‘याद’ शब्द से
बने अनगिनत लकीरों में उलझ कर,
‘तुम’ शब्द से जुड़े रहने की जद्दोज़हत में
‘गाँठ’ शब्द, जैसे प्रेम का कोई मज़बूत आकार,
में निरन्तर परिवर्तित होते रहना;

यह महसूस कराते रहता है कि
‘तुम’ और ‘याद’ शब्द के बीच
बंधे इस फ़ासले को समेट कर
खतम करने की कोशिशों में
इन गाँठों की गिनती सदैव बढ़ती ही रहेगी.