Friday, June 29, 2012

अपने मन की बात.....


नीली दीवार पर
आईने का चौकोरपन,
नहीं बाँध पाता
मेरे अंदर का खालीपन।

इस्त्री किए हुए
सभी कपड़ों के बीच,
मैं छुपा नहीं पाती
अपने मन का सच।

ये घड़ी की सुईयां
इतनी भी नहीं नश्तर,
कि फेंक सकूँ मैं
जो भी बचा मेरे अंदर।

एक टंगा लाल झोला या
गुच्छे चाबियों का सारा,
नहीं है तो बस वो कील जिसे
समझ सकूँ मन का सहारा।

कैलेंडर में दीखता तो है
मौसम का बदलना,
फिर क्यूँ रुका हुआ है,
यादों का यहाँ से जाना।

बिस्तर में तकिया
ही सोता है पूरी रात,
मैं चादर की सिलवटों में
लिखती अपने मन की बात।

Thursday, June 28, 2012

तुम अब भी.....

मैंने आज फिर से
तुम्हारा प्रोफ़ाइल देखा है,
तुम अपने इस नई तस्वीर में
और भी अच्छे लगते हो।


मैं तुम्हारे गालों को
अब ज्यादा महसूस करती हूँ,
तुम पहले - से कुछ और 
मोटे हो गए - से लगते हो।


ये सफ़ेद-काले धारियों वाले
मफ़लर में तुम्हारी आँखें
और भी चमकने लगी है,
तुम्हारे ड्रैक्युला वाले दाँत
तुम्हें और भी जादुई बना देती है।


मैं इस जादू से तब से
अब तक सोयी नहीं हूँ,
मैं तस्वीर के नीचे तारीख में
इस जादू का बनना ढूँढती हूँ।


और वो लाल रंग का 'ज़ुरिक' बस,
बगल में, यह जताने लगता है,
कि तुम अब भी उस रंग में
उतने ही अच्छे लगते हो।



Monday, June 18, 2012

मन के कीड़े


जबसे देखा है
लाल चींटियों को,
उस मरे कीड़े को,
साथ ले जाते हुए:
तबसे सोचती हूँ,
कि कब आएगें
मेरे मन के
दरवाजे पे भी,
समय की चींटियाँ,
मन में जनमने
वाले कीड़े को
ले जाने के लिए,
कब तक उनके
मरने का और
इंतज़ार करेंगे?
ये कमबख्त
मरने का नाम
भी क्यूँ नहीं लेते?
कब मन
इनसे खाली
हो पाएगा?
और कब मैं
इन यादों को
ख़त्म कर दूँगी?
कब इनको भी
चींटे लग जाएगे?