Saturday, September 8, 2012

अंतर-संवाद


“ओह नो! सवा चार तो कबके हो गए! नहीं उससे भी ज्यादा, ४ मिनट तो ऐसे ही आगे रखा है मैं टाइम को। हम्म .....लैपटाप बंद कर दिया ये मैंने.....और वो पाउच कहाँ गया ? दीख नहीं रहा..... मिल गया !!!! फोन !!!!!! फोन रखा है न मैंने? हाँ है.....पहले ये टेबल सब साफ कर ले। ये कप तो साफ किए नहीं.... अभी पानी डाल देते है.... कल सुबह धो लेंगे। आज कौन सी किताब ले जाएँ? ये वाली ले लेती हूँ, टाइम मिला तो नोट्स बना लेंगे। नहीं.... इससे तो अभी ही बैठ के नोट्स बना लिए है। तब राममरुथम ले लेते है, इसमें से क्वेश्चन चुन लेंगे एटलिस्ट, जो कि कल डिस्कस किया जा सके। इतनी मोटी बुक है, इसे हाथ में ही ले लेती हूँ। अलमारी की चाबीइइइइ....... अरे अलमारी में ही तो लगी हुई है! लॉक हो गया! अब दराज सब को भी लॉक कर देते है। अरे टिफ़िन तो रह ही गया......अच्छा हुआ याद आ गया, नहीं तो फिर इक दिन तक सड़ते रहता। और कुछछछ..... नहीं अब सब पैक हो गया है।”

“बाक़ी लोग? लगता है बस के लिए निकल गए है। चल वंदना, नहीं तो बैठने को जगह नहीं मिलेगी।....... फ़िज़िक्स वाली मैडम अभी भी है लैब में..... माने टाइम है अभी बस का। फिर भी जल्दी चलना चाहिए।”

“किसका बैग है ये? थैंक गॉड! जगह मिल गयी। वो मैडम के लिए जगह मिलेगी क्या? कोई नहीं! यहीं शेयर कर लेंगे, हमेशा की तरह! J

“५ बजनेवाले है, अभी तो कमड़े में ही है बस। सब्जी लेना है क्या आज? टमाटर तो है अभी, कल दो यूज़ किया था, दो तो होंगे ही। मिर्च..... नहीं है.....प्याज है.... आज सब्ज़ी किसी और से लेंगे। वो खूसट हमेशा देख के अपने से सब्ज़ी लेने को कहता है। वो अम्मा के यहाँ सब्ज़ी ढंग की मिल जाती है, और दाम भी ठीक ही लेती है। चल अपना क्या! एक पाव भी लो तो ज्यादा बन जाता है। कल वो पगला दिखा नहीं, सब्ज़ी-रोटी तो रखा ही रह गया। कोई नहीं.... फेंक देंगे। अरे! दूध तो गरम ही नहीं किए आज, पक्का फट गया होगा।”

“आ गया पंडरा..... अरे मुझे तो याद ही नहीं रहा..... अब तक तो वो चले गए होगे, फोन करके पूछते है, पहुँचे कि नहीं? रात को करते है। चलो आज दीदी के घर नहीं घुसते है, फोन कर देंगे कि दूध लेने आराम से आयेंगे। अरे नहीं चाबी तो दीदी के पास ही होगी आज। अच्छा हुआ याद आ गया, नहीं तो फिर आना पड़ता!”

“उनको रास्ता याद होगा न, मुझे बता देना चाहिए था। नहीं रे, ईज़ी सा रास्ता तो है, उनको याद ही रहेगा। दीदी का घर तो सामने ही है। नाश्ता कहाँ किया होगा उन्होने? मुझे जल्दी उठ जाना चाहिए था आज, कुछ बना लेती! पता नहीं कॉर्नफ़्लेक्स, ब्रैड खायें भी होंगे कि नहीं? अच्छा हाँ! आज तो दूध उनको गरम कर के दे दिया था!”

“कुछ चीज़ ढूँढने में दिक्कत तो नहीं हुआ होगा न, फोन भी नहीं किया मैंने इक बार भी। कॉलेज जाने से मुझे और कुछ याद ही नहीं रहता है। अरे हाँ, मैं लैपटाप आज यहीं रख देती तो उनको बोर नहीं लगता, और वो अपना कल जो देख रहे थे वो भी काम पूरा कर लेते।”

“उफ़्फ़..... दो दिन कितना अच्छा लगा था, पहली बार आए थे, इतने दिनों के बाद मेरे घर में। कोई आके चला जाता है तो ज्यादा गुस्सा आता है। क्यूँ आए? कल का परवल का सब्ज़ी भी अच्छा नहीं बना था। मेरे से ज्यादा अच्छा बनाने के चक्कर में खराब ही बनता है। लेकिन पकौड़े तो खूब खाये!.... पेट खराब न हो गया हो..... आज जर्नी भी था। ऐसे भी आज कल उनका पेट ठीक नहीं रहता है। लेकिन, फिर भी खाने का मन नहीं जाता उनका! बोलना होगा। बोलेंगे भी तो हंस देंगे, हमेशा की तरह।”

“ये क्या है? अरे ये तो उनका टिक़ट है, मूरी टु रांची!!!!! मिस यू सो मच!!!!! कितना अच्छा था न कल तक दिन! सैटरडे से उनके आने की राह देखे, कब आयेंगे? कब आयेंगे? फिर किसके यहाँ रहेंगे? मेरे यहाँ रहे, कभी भी नहीं आयें है यहाँ पर, और इसके बाद तो शायद मैं पटना चली जाऊँ? फिर इस घर में कब आना होगा? दीदी भी सोची होगी न, मेरे यहाँ नहीं रुके, कोई नहीं उनके यहाँ तो हमेशा आते जाते रहेंगे! मेरे यहाँ शायद इसी बार हो पाता।”

“उफ़्फ़.... ये क्रीम बॉटल सब छुपा देना चाहिए था, कल कितना पूछ रहे थे, ये क्या है, इतना क्यूँ? डांटे ही नहीं बस। हे हे नहीं भी बताते तो, उनसे कौन छुपा सकता है, और मेरी तो वो हर रग को पहचानते है! मैं भी न!”

“हम्म..... चाय बनाए थे इसका मतलब! उफ़्फ़ ये प्लेट क्यूँ धो के रख दिये? हम नहीं आके धो सकते थे क्या? अरे वाह दूध पूरा खतम! हम्म ये कॉर्नफ़्लेक्स का डिब्बा तो बहुत हल्का लग रहा है, माने कि खूब अच्छे से नाश्ता करके गए थे! J..... उनको भी मैंगो फ़्लेवर का कॉर्नफ़्लेक्स पसंद आया!!!!!!...... हम दोनों की पसंद तो इक होनी ही है...... हे हे हे....”

“कितना अजीब लग रहा है...... दो दिन पहले की बात थी, अब जाने के बाद इतना खराब क्यूँ लग रहा है..... मुझे आज हाफ़ डे करके आ जाना चाहिए था। कम से कम उनके जाने के समय तो रहते। सुबह उनको सब चीज़ बता कर गयी थी। ये ऐसे करना, और इसको ऐसे। किचन का ज़मीन गंदा क्यूँ है इतना? अच्छा..... लगता है इंडक्शन काम नहीं किया होगा, ओहहो..... फिर तो गैस में बनाए होंगे? तभी सोचूँ..... ये गंदा हुआ कैसे? अरे! माचिस उनको आराम से मिला होगा न। नहीं भी तो पूजा वाला माचिस तो दिखा ही होगा। कल उनका चप्पल हम रगड़-रगड़ के साफ कर दिये थे, उनको फर्क महसूस हुआ होगा कि नहीं? पहले जूता पॉलिश करना हो तो मुझे ही बुलाते थे..... और तब मैं गुस्सा से करती थी कि मुझे ही क्यूँ हमेशा बोलते है? और कभी-कभी मुझे उनका जूता पॉलिश करना कितना अच्छा लगता था!”

“कल कितने देर तक उनसे बात किए! और उनको भी नींद नहीं आ रहा था..... सच में कल बहुत अच्छा लगा, हमने कितनी सारी बातें की! उफ़्फ़.... और आजकल तो मैं और भी बात कर लेती हूँ, और वो भी अब कितनी बातें बताने लगे है। वो टिक़ट अच्छे से रख लेती हूँ। यहाँ भगवानजी के पास!........क्यूँ चले गए?

“निक्की को फोन करके बताते है। उसको पता तो होगा ही, साथ में बात करना चाहिए था। इसका भी फोन ऐन टाइम पे नहीं लगेगा...... ये चद्दर सब भी मोड़ के गए हैं, अरे बाबा मुझे भी तो कुछ करने दीजिये...... उस दिन नींद नहीं आ रही थी फायनली वो ज़मीन पे ही सो पाये। इससे अच्छा तो दीदी के यहाँ पर ही रहते। कल ठंड लग रही थी उन्हें, लेकिन कंबल भी नहीं ले रहे थे। कितना कहने के बाद वो पतली रज़ाई लिये। घर में रहते तो मेरा कंबल कौन-सा है इसी में हम झगड़ा कर रहे होते!”

“ये मेरा वाला स्लीपर उनको आ ही गया होगा। ऐसे भी दो साइज़ बड़ा लिया था, पहनते-पहनते तो और भी बड़ा-सा लगता था। ऐसे भी खाली पैर चलने से उनको दर्द हो जाया करता था। अच्छा.....उनका एड़ी का दर्द गया कि नहीं? पूछा भी नहीं.... नहीं नहीं.... पिछली बार घर गए थे ठीक था, बोले थे.....”

“क्या बनाऊँ? अब अकेले कुछ बनाने का मन भी नहीं कर रहा है। कल लेकिन चिली चिकन अच्छा ही बना था! मुझे तो ड़र लग रहा था..... कितने साल हो गए थे बनाए हुये..... पता नहीं उनको मेरे हाथ का चिली चिकन इतना खाने का मन क्यूँ करता है...... जैसे तैसे तो बना देती हूँ। लेकिन चलो..... उनको चिली चिकन खाने का मन था और कल मैंने किसी भी तरह से बना के खिलाया भी। वो तो दीदी के घर में बनाने के चलते ड़र लग रहा था..... खैर इस बार घर जाऊँगी तो फिर से अच्छे से बना के खिलाऊँगी। बस घर ही कब जाऊँगी, यही पता नहीं। अरे उनके दवाई का पत्ती तो यहीं रह गया! अरे नहीं.... ये तो सब खतम हो गया है। अच्छा ये गिलास इसीलिए यहाँ पर पड़ा है...... यहीं पर दवाई खा के रख दिये होंगे। ये दवाई अभी भी ले रहे है......ठीक ही करते है। इस पत्ती को फेंकने का मन नहीं हो रहा है। मैं भी न!”

“दीदी ने फोन पर बताया कि वहाँ नाश्ता किए ही नहीं , माने कि सब खा के ही गए थे। अच्छा हुआ सुबह सब कुछ मैंने बता कर गयी थी, लेकिन रास्ता क्यूँ नहीं बताया? सोच भी रही थी कि बता देते है। बस इक वही चीज़ नहीं बताया और बाएँ के जगह दायें घूम गए..... और फिर रास्ता भूल गए। उफ़्फ़ धूप भी होगा,......छाता ????? हाँ ले गए हैं...... चलो ठीक किया.... नहीं तो बारिश होती तो परेशानी होती। वो छाता मम्मी को अच्छा लगेगा।”

“वो पगलू सुबह दरवाजा खटखटाया होगा..... पता नहीं उसकी बोली समझें भी होंगे कि नहीं? कोई नहीं। वो भी कौन सा बात किया होगा पापा को देख के? चल वंदना..... गेट बंद कर लेते है। अब पढ़ने का भी मन नहीं कर रहा है। उफ़्फ़... कितने अच्छे दिन थे वो..... जमशेदपुर के.... पापा आपने हमलोगों को कितने अच्छे दिन दिये है कि अब भी भुलाए नहीं भूलते...... पता नहीं मैं भी कब आपको वैसे ही अच्छे वाले दिन दे पाऊँ? काश! वो दिन जल्द ही मेरे हाथों में आ जाए और फिर मैं आप दोनों को पूरी दुनिया की सैर कराऊँगी!

6 comments:

Nidhi said...

मम्मी पापा के सतह रहते एहसास ही नहीं होता जिम्मेदारी का.कितनी बेफिक्री के दिन........काश वापस आ पाते.....

Nidhi said...

साथ *

डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक' said...

बहुत सुन्दर प्रस्तुति!
आपकी इस उत्कृष्ट प्रविष्टी की चर्चा कल रविवार (09-09-2012) के चर्चा मंच पर भी होगी!
सूचनार्थ!

Yashwant R. B. Mathur said...

आज 09/09/2012 को आपकी यह पोस्ट http://nayi-purani-halchal.blogspot.in पर लिंक की गयी हैं.आपके सुझावों का स्वागत है .
धन्यवाद!

वन्दना महतो ! (Bandana Mahto) said...

डॉ रूपचन्द्र शास्त्री जी और यशवंत जी, पोस्ट को शामिल करने हेतु बहुत-बहुत धन्यवाद!

प्रवीण पाण्डेय said...

आत्मालाप में मन के कई राग बजने लगते हैं।