Friday, February 1, 2013

नश्तर एहसास.....


क्यूँ नहीं मिलते शब्द
जिनपे उड़ेल डालूँ
अपने ज़िंदा होने का अहसास।

मुझमें नहीं बची है,
रत्ती-भर भी ज़िंदगी,
ये बात कैसे जताऊँ।

मुझे समय के पहिये को
तोड़ कर जलाना है,
अपनी तपिश में।

उस जलन में खुद को
फिर स्वाहा कर देने का
अहसास भी तो पाना है।

ये अब खेल नहीं रहा,
ज़िंदगी की बिसात पर,
अब और कोई चाल बाकी नहीं है।

पत्ते की तरह बिखर कर
किसी हवा के सरकने का
इंतज़ार करना, अब बाकी नहीं है।

किस्मत, जिंदगी, प्यार, दर्द
सब तेरी माया ही होगी,
मगर अब तू भी असरदार नहीं है।

ये ज़िंदगी है तुम्हारी दी हुई गर,
तो तू भी मान ले अब कि
और तोड़ने की अब तेरी औकात नहीं है।